इजहारे मोहब्बत
“बाबूजी! बाबूजी! कहाँ हैं आप? दरवाजा खुला छोड़ दिया है,” कहते हुए ऋतु हैन्डबैग लिये अंदर आयी।
“तू अचानक यहाँ मुझ बूढ़े के पास? फुरसत मिल गयी तुझे अपने मरीजों से? कितने दिन रहेगी?”
“बाबूजी, साँस तो लेने दो। पहले पानी पी लूँ फिर आपके ढेरों प्रश्न का उत्तर देती हूँ।” ऋतु ने बैग रखा और बैठ गयी। बाबूजी पानी से भरा गिलास ॠतु को देते हुए बोले, “तू बिलकुल नहीं बदली। अब भी हाथ में गिलास थमाना पड़ता है। याद रख, अब तेरी माँ नहीं रही।”
“बाबूजी! माँ हम सबका कितना ख्याल रखती थीं पर आपको हमेशा उनसे कितनी शिकायतें रहती थीं?”
“हाँ ऋतु, मैं उसे कभी खाने को लेकर तो कभी घर के खर्च को लेकर अक्सर सुना दिया करता था लेकिन वह करती अपने मन की धी।”
“फिर भी इतने साल आप दोनो एक-दूसरे के बिना नहीं रहे,” ऋतु भावुक हो आयी और बाबूजी की आँखें नम हो आयीं।
बाबूजी ने कहा, “तू हमारी केमेस्ट्री नहीं समझेगी? इन छोटी-छोटी शिकायतों ने ही तो हमें जोड़ कर रखा था। शायद यही हमारा ‘आई लव यू’ था।”
— डा. अनीता पंडा ‘अन्वी’