कविता
युद्ध….
तीर कमान से
मिसाईलों तक के सफर तक बेशक
आदमी ने कई मील पत्थर
लांघ लिए है
परंतु अपने वर्चस्व की स्थापना की चाहत
आदिमानव से लेकर अब तक
आदमी के भीतर वैसी ही जिंदा है।
मानवता और दानवता का अंतर्द्वंद
और युद्ध की प्रवृत्ति
आज भी आदमी के लहू में
दौड़ती हुई आदमी के ज़हन तक
आती जाती है।
यद्यपि
युद्ध की विध्वंसक विभीषिका में
मानचित्र की रेखाएं ही नहीं
रंग तक बदल जाते हैं
इतिहास के पन्नों पर लहू के छींटे रह जाते हैं
इस सब के बावजूद भी
युद्ध होते रहे हैं होते रहेंगे।
यह युद्ध -परंपरा युगों युगों से
इसी तरह चलती आ रही है।
जिस तरफ
श्री कृष्ण खड़े हो जाते हैं
अंत में वह पक्ष विजयी हो जाता है ।
सच यह भी है कि
कौरव हमेशा हार ही जाते हैं
बेशक कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों
क्योंकि
मानवता के विरुद्ध खड़े होने वाले
कभी नहीं जीतते
इतिहास इस बात का साक्षी है।
युद्ध के बाद राजा विजय का सुख
भोगते हैं
और प्रजा का हासिल
होता है सिर्फ युद्ध की विभीषिका के बीच
अपनों व सपनों को
खो देने की अकथनीय अकल्पनीय
अंतहीन पीड़ा।
बेशक युद्ध के बाद पीछे रह जाते हैं
युद्ध के बारूदी अवशेष
औरआम आदमी की
लहू सनी
सिसकियों और चित्कारों के बीच
लड़खड़ाती बिखरती
जिंदगी की नाज़ुक सांसें।
अशोक दर्द डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश