मुझे कुछ भी याद नहीं
मुझे कुछ भी याद नहीं
किस दिशा से आये दुराचारी
नियत के खोंट व्यभिचारी
उसके चेहरे का रंग भी याद नहीं
किस रोगन के वेशभूषा थी
वह भी ध्यानाद नही
पर नही भूला हूँ उस बेला,वार को
मुझ पर हुए अत्याचार को
भरी दुपहरी में तेज धूप थी
असीम गर्मी की विकराल स्वरूप थी
दिनकर उग्र असबाब पर था
सब दुष्ट नकाब पर था
किंतु मेरी तन-मन बिलख रही थी
मुँह बंधे सिसक रही थी
मुझे धुंधले स्मरण है उनके स्पर्श
देह को पकड़कर लिटाते फर्श
उनके हाथों का भारीपन
झकझोरती मुझे हाथी सा वजन
एक-एककर भेड़िये सा नोचते
वक्ष दाएँ-बाएँ को खरोचते
मुझे लगा मैं तो मर ही गयी
पता नही कैसे बच गयी?
पर यह जीना भी क्या जीना है?
रोज दो घूँट आँसू के पीना है
अच्छा होता मर गई होती
पीड़ा के प्रवाह से बिखर गई होती ।।
— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’