अपनों ने दुख-दर्द दिया
जिसे अपना कह कर अपनाया था,
हर राज जिसे मैंने अपना समझाया था,
जिसके संग हंसी के पल बांटे थे मैंने,
जिसे अपनेपन के दीप जलाए थे हमने।
वो ही दो पल में अजनबी बन गई,
बातों में मीठी, पर नज़रें बदल गई,
जिसके लिए हर दर्द छुपा लिया मैंने,
उसने ही दिल को छलनी कर दिया मेरा।
न रिश्ता खून का था, न कोई नाम था,
फिर भी बाँध लिया उसे रूह के संग थाम,
पर जब ज़रूरत थी एक साथ की जब,
उसने छोड़ दिया बिना कोई बात की मुझे।
क्यों अपनों से ही घाव गहरे मिलते हैं?
क्यों विश्वास के रिश्ते पहले सिलते हैं?
अब सवालों में ही उलझा हूं मैं जिंदगी में,
क्या अपनों का मतलब यही होता है कहीं?
फिर भी दुआ है उसके लिए दिल से ,
खुश रहे वो दूर ही सही इस दिल से,
क्योंकि जो रिश्ते दिल से बनते हैं अपने,
वो बदले नहीं जा सकते मिल के कभी।
— रूपेश कुमार