गजल
हम ही सारी उम्र अपने आपको छलते रहे
पांव लेकिन थे कि मंजिल की तरफ बढते रहे
एक खटपट आज भी अपने दिमागो-दिल में है
कुछ दिये पलकों पे जलते और कुछ बुझते रहे
है किसे फुर्सत जो समझे दर्द की गूंगी जुबां
हम कभी जलते-सुलगते तो कभी गलते रहे
कौन हूं मैं और क्या मुझमें है इसकी खोज में
पुस्तकों से जूझते-एकान्त में ठहरे रहे
सारे उत्तर ‘शान्त’ मेरे अनुभवों की जद में थे
किन्तु हम चतुर-चालाक थे माया-जाल में उलझे रहे
— देवकी नंदन ‘शान्त’