नींद और जागृति
नींद तो हर रोज़ खुलती है,
पर क्या खुलती हैं आँखें सच में?
मन के अंधेरों में कहीं छुपी,
एक उम्मीद सी कब जागे।
जीवन सिर्फ साँसों का खेल नहीं,
यह तो एक गीत है, एक पीड़ा,
जब आँखें खुलती हैं तो देखती हैं,
कैसे टूटती हैं सपनों की दीवारें।
नींद से बढ़कर है जागरण का सुख,
जब मन में खिले नए फूल,
हर दर्द को गले लगाकर,
खुशबू दे नई राहों को।
आओ, जागें उस पल के लिए,
जब आँखें खुलें, जीवन जागृत हो,
सपनों से कहीं आगे बढ़कर,
सच की रौशनी में नहाया हो।
— प्रियंका सौरभ