कविता

बूढ़ा हुआ संसार?

रजत के धागों से बुनी
समय की श्वेत चादर,
प्रशांत नभ की मौन गाथा,
अतीत की बिखरी मुस्कान।

सांसों की तूलिका से,
अमिट रेखाएं खींचता समय,
पलकों पर ठहरा एक सपना,
बूढ़ा नहीं होता, बस गहरा होता है।

आंखों के कोर से फिसली,
एक बूंद की कथा,
धुंधला नहीं करता दर्पण,
बस गहराई नापता है।

तुम जो आहटों में बसी हो,
श्वास की शीतल पुकार,
तुम्हारी मुस्कान से पूछो,
किस पल में बूढ़ा हुआ संसार?

— प्रियंका सौरभ

*प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh

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