संदेह की दृष्टि
हर चेहरा अब सवालों में घिरा,
हर कदम पर शंका का साया,
ईमानदारी की चादर इतनी पतली,
कि आर-पार दिख जाए दुनिया का तमाशा।
नज़रें टटोलती हैं हर आचरण को,
जैसे पत्तों के पीछे छिपी हो आंधी,
किस पर भरोसा करें, किस पर न करें,
हर इंसान पर एक सवालिया निशान खींचा है।
जहां विश्वास का सूरज ढल रहा हो,
वहां चरित्र की परछाईयां लंबी हो जाती हैं,
सफ़ाई भी संदेह में डूबी लगती है,
सच्चाई भी जैसे झूठ की चौखट से गुज़रती है।
हां, दोष किसमें नहीं होते,
पर क्या हर गुण भूल जाना ही उचित है?
जब शक की खिड़कियां बंद हो जाएं,
तो रिश्तों की हवा भी थम जाती है।
चलो, एक बार फिर से भरोसे की रौशनी जलाएं,
संदेह के परदे हटाएं, विश्वास के किवाड़ खोलें,
क्योंकि हर शक के पीछे,
कभी-कभी सच्चाई भी शर्माती है।
— डॉ सत्यवान सौरभ