अंधेरा और संवेदना
जो संवेदना हीन होते हैं, वे न रो पाते हैं,
न उनके भीतर कोई दर्द जागता है,
न आंसू की कोई नमी उनके गालों पर आती है।
स्वयं की पूजा में इतने लीन हो जाते हैं,
कि उनके नीचे नहीं, उनके सामने भी अंधेरा छाया रहता है।
यह अंधेरा चुपचाप उनके मन के कोने में बैठा रहता है,
बिना किसी उम्मीद के, बिना किसी किरण के।
वे नहीं जानते कि आंसू क्या होते हैं,
न वे समझ पाते हैं कि मन में उठती पीड़ा कैसी होती है।
उनका अंधेरा न तो जगता है, न जलता है,
बस कहीं भीतर कहीं दूर कहीं गुमसुम रहता है।
ओ! वह संवेदना जो टूटती है, बहती है,
जो दर्द को सहती है, पर उससे हार नहीं मानती।
कहीं तो यह उनके भी भीतर जागेगी,
जब उनके मन के अंधेरे को रोशनी छू जाएगी।
— डॉ सत्यवान सौरभ