कविता

मस्त मलंग

सुबह होते ही आपाधापी
थोड़ी देर लग गई क्या आँख
कोसती खुद को हजार बार
हमेशा अव्वल आने की है चेष्टा।

थोड़ी सिलवट रह गई बिस्तर में
झाला थोड़ा सा लग चुका,
चलो पहले बना लो चाय
खुद से ही होती प्रतियोगिता।

हम देते रहते खुद ही परीक्षा
फिर करते आँकलन समीक्षा
खुद का करना है मूल्यांकन
कब हो खुद के जीने की इच्छा।

दूध उबल कर बन गया खोआ
कोई बात नहीं क्या बिगाड़ेगा मुआ,
बन गई सब्जी थोड़ी झाल
क्या करना हो जाये बवाल।

जब से मिल गया मुझे विकल्प
समस्याएं मेरी हो गई अल्प
अब नहीं होती आपाधापी
कब और कैसे काहे की परीक्षा?

परीक्षार्थी परीक्षक समीक्षक,
बनी अब खुद की खुद ही
हो गया जब ये आत्मसात
फिर लोगों की क्या बिसात।

रहतें हैं अब मस्त मलंग
सीख लिए जीने का ढंग।

— सविता सिंह मीरा

*सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]

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