कविता

मौन की पंखुड़ियाँ

मैंने देखा है,
उन पत्तों को,
जो आंधी में कांपते हैं,
जिनकी जड़ें मिट्टी में हैं,
पर मन खुली हवा का सपना देखता है।

मैंने सुना है,
उस चिड़िया की पुकार,
जो अपने घोंसले से दूर,
किसी और के आंगन में
अपना बसेरा ढूंढती है।

मैंने महसूस किया है,
उन लहरों की बेचैनी,
जो सागर के सीने से उठती हैं,
पर किनारे की कैद में तड़पती हैं।

मेरे मन का हर कोना,
बस इन्हीं बंधनों में उलझा,
पिंजरों से टकराता,
खुद को आज़ाद करने की चाह में,
हर रोज़ एक नई मौत मरता है।

कैसे कह दूँ,
कि मैं एकलौती नहीं?
हर बेटी, हर बहन, हर माँ,
इस दोहरी सोच की बेड़ियों में जकड़ी है,
जो प्रेम से पहले, संपत्ति से तौली जाती है।

कभी देखा है,
उस गुलाब की पंखुड़ी को,
जो कांटों के बीच खड़ी,
अपनी महक में खोई रहती है,
पर किसी की चाहत का भार
अपने नाजुक कंधों पर लिए जीती है।

मैं भी तो वही हूँ,
एक नाजुक सपना,
जिसे रिश्तों की रेशमी डोर में,
सोने-चाँदी के बंधनों में जकड़ दिया गया।

पर अब,
मुझे खुद की महक से मिलना है,
इस दोहरी सोच से परे,
अपनी पहचान को पाना है।
अब मुझे उगना है,
उन पत्तों की तरह,
जो आंधियों से लड़ते हैं,
उन लहरों की तरह,
जो चट्टानों से टकराती हैं,
उन पंखुड़ियों की तरह,
जो कांटों के बीच भी मुस्कुराती हैं।

— प्रियंका सौरभ

*प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh