कहानी

कहानी – भैयाद बांध

सुबह का आसमान साफ हो चुका था । तिलक महतो घुमते हुए बांध की ओर चले गए थे । बांध का मुहाना खुला था और बांध का पानी लहलहाते खेतों में जा रहा था । उनके भी बांध किनारे कई खेत थे । धान पकने को हो आये थे । अधपकी बालियां मन को लुभा रही थीं । वह बरसों बाद बांध की मेंड़ पर खड़े विशाल बांध को नजदीक से देख रहे थे । बांध की मेंड़ आज भी उतनी ही मजबूत लगी थी,जैसे बीस साल पहले थी । हां,सीढ़ियों पर शैवाल ने अपना वजूद जरूर कायम कर लिया थ। जिस पर तिलक महतो का ध्यान अटक सा गया था । तभी महरू मोदी की कही बातों ने उन्हें चौंका दिया था ” काका,बात पक्की है,सेठ बांध पर अपना कब्जा जमाना चाहता है,हर हालत में,कई साल पहले से ही सेठ अपने नाम से रशीद कटवाता आ रहा है..।” 

सुबह की भोर बेला में महतो टोला में आकर महरू ने तिलक महतो से कही थी यह बात । सुनकर ही तिलक महतो उठकर खड़े हो गए थे-” नहीं, यह नहीं हो सकता, यह कैसे हो सकता है ? बांध पर सरकारी पैसा खर्च हुआ है,वह उसे अपने नाम कैसे करवा सकता है । बांध दस भैयाद का है,सेठ उसे हड़प नहीं सकता है..।”

महरू बोला -” काका, मै झूठ थोड़े न बोल रहा हूँ । सेठ का कहा मैने खुद अपने कानों सुना हूँ  । वह एक दिन अपने ” खास  ” लठैत  लहरी सिंह से कह रहा था -” लहरी, बांध पर अब अपना कब्जा हो ही जाना चाहिए..।”

” ऐसा हरगिज नहीं हो सकता है । बांध दस भैयाद का है और  दस भैयाद का ही रहेगा सेठ अकेले इसे हड़प नहीं सकता है..।” महरू की कोई और बात सुने तिलक महतो थोड़ी देर के लिए अंदर गए  । विस्तर से गमछा उठाया और फिर तेज कदमों से बाहर निकल गये । महरू सेठ घर ओर मुड गया । वह सेठ का घरेलू नौकर था ।

तीन ओर से जुड़ा था वो दस भयाद बांध  !  बांध के उतर में महतो टोला, दक्षिण में महरा- तुरी टोला,पूर्व में बांसों का वन, पश्चिम में मोदी,मिसरा और लोहारो का मिला- जुला  टोला शामिल था । तीनों टोलों की  औरतें हर दिन इसी बांध में नहाती-धोती,कपड़ा- लता साफ-सफाई करती और एक दूसरे का सुख-दुख बांटा करती थीं- ” बांध के इतिहास और  वर्तमान से बेखबर होकर “

तिलक महतो बड़े गहरे भाव से बांध और उसके शांत जल को निहार रहे थे । थोड़ी देर रूककर धीरे से किनारे पर गये और ठंडे जल से मुंह धोया । मन को बड़ा सुकून मिला । बैचेनी कम हुई । पर पसोपेश में उलझे रहे । सोचते रहे- गांव वाले बांध से कहीं बेदखल न हो जाएं  ! चिंताग्रस्त घर लौटे थे वो ।

पच्चीस वर्षों तक रेलवे की नौकरी कर तिलक महतो जब रिटायर होकर घर लौटे तो उनके सामने गांव समाज की ढेर सारी पुरानी यादें जीवंत हो उठी थीं और तब वो रोमांचित हो उठे थे । वह सोचने लगे थे कि अब गांव समाज के साथ फिर से जुड़ सकेंगे । गांव में रह कर खेत-खलिहान से जुड़ना कितना अच्छा लगेगा । अपने हाथ से उपजाई साग- सब्जियाँ खाकर बाकी का जीवन सुख- शांति से बितायेंगे । अपने सगे- संबधियों के बीच बैठ सकेंगे,जो पच्चीस सालों से छूट सा गया था । रिश्तों में सुखाड आ गया था। कभी-कभार परब- सरब,मेले- त्योहार में वे घर आते थे,पर संन्यासियों की तरह रात बिता सवेरे निकल जाते,कोई देखता कोई नहीं । लेकिन अब ऐसा नहीं होगा । अब उनके पास समय ही समय है । जो जितनी देर रोकना चाहे,रूक जायेगा । परन्तु गांव में कदम रखते ही बांध वाली समस्या ने जिस तरह उनका स्वागत किया, वो सारी रात ठीक से सो नहीं सके ।

बांध को लेकर छ: माह पूर्व ही विवाद शुरू हो चुका था । तब एक दिन महतो टोले की औरतों से लहरी सिंह ने कहा था -” सुनो,तुम लोग अब इस बांध में खार- पात कांचने ( साफ करने)  नहीं आना । मालिक मना करने को कहता है..।” 

लहरी सिंह नशे में था । उसकी आंखें चढ़ी हुई थी । सो किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया -” दारू पीकर बकता है..।” लोगों ने कहा । बात आयी- गयी हो गई  । लेकिन सप्ताह दिन बाद ही गांव में एक घटना घट गयी । जिसने लोगों को सकते डाल दिया था ।

ढ़िबरा तेली और सुदना दोनों का बांध से घर-परिवार चलता था । दोनों परिवार का भरण-पोषण समझो बांध ही कर रहा था । ढ़िबरा और सुदना दोनों भिनसोरे(भोर) से फेंका जाल से मछली मारना शुरू कर देते थे और सुबह होते- होते दोनों पांच- दस किलो मछलियाँ मार लेते थे । उनमें ज्यादातर रोहू,कतला,मिरीग,सिलिकप और दो चार मांगुर माछ भी हाथ लग जाते थे । बाद में किलो- डाण्डी ले बाजार की ओर निकल जाते थे । कोलियरियों में ताजी मछलियों की बड़ी मांग थीं । मुंहमांगी दाम मिल जाते थे । इससे दोनों परिवारों को कभी भूखों मरने की नौबत नहीं आयी थीं । ऐसी ही मछलियों से गांव के और भी कई परिवार जी- खा  रहे थे । एक तरह  बांध से बहुतों की जीविका चल रही थी । सहारा बना हुआ  था ।

उस दिन भी वे दोनों मछलियाँ मार कर बाज़ार जाने की तैयारी कर रहे थे । तभी वहाँ बांध की मेड़ पर लहरी सिंह के अलावे दो अन्य लोगों को लेकर सेठ मनिलाल पहुंचा । तब मनिलाल ने ढ़िबरा और सुदना के हाथ से न सिर्फ खंचियां और जाल छीनी बल्कि दोनों के गाल पर एक एक चांटा जड़ दिया और धमकाते हुए कहा ” फिर बांध के आस-पास नजर आया या मछली मारने की कोशिश भी की तो तुम दोनों की खैर नहीं..चल भाग. ।”  कुते की तरह सेठ ने दोनों को दुत्कार कर भगा दिया था ।

यह सब कुछ  कई खुली आँखों ने भी  देखा  । लेकिन प्रतिरोध की बात तो दूर,किसी के मुँह से एक शब्द तक नहीं निकला था ।

इस घटना से गांव के युवा काफी गुस्स में थे । उनमें बार-बार उबाल आ रहा था । परन्तु जिन्होंने सेठ के जुल्म और अत्याचार अपनी खुली आँखों से थे,उन बूढ़ों ने इस घटना को भूला देने में ही भला समझा कहा ” हम सेठ का कुछ नहीं बिगाड सकते हैं,वो हाथी है,उसके आगे जाओगे,कुचले जाओगे..।”

इससे युवा और भड़क उठे ” सेठ ने ऐसा क्यों कहा कि तुम दोनों की खैर नहीं ? क्या बांध अकेला उसका है ? अगर कुछ लोग माछ बेच अपना परिवार पाल रहा है तो,वो कौन होता रोकने वाला..?” जितने युवा उतनी बात ।

बांध से हर घर-परिवार का कुछ न कुछ वास्त था । पट- पटवान और नहाने- धोने की बात नहीं थी । सेठ के सिपहिया ने पहले औरतों को रोकना चाहा, फिर मछली न मारने की धमकी मिली । कल जाकर वह खेतों में पानी जाने न दें । उस पर रोक लगा दे । यह सारे घटनाक्रम से गांव का माहौल गरम था । वहीं सेठ की ओर से लगातार कहा जा रहा था कि बीस वर्षों से वह बांध की मालगुजारी देता आ रहा है- अकेला  ..! इस बात से गांव वालों की मुंह बंद हो जाती थीं । शाम ढ़लते ही यह बात हर टोले की जुबान पर चढ़ी होती । जिसका जवाब किसी के पास नहीं होता । तब के मुखिया भी जीवित बचा न था । ऐसे समय में तिलक महतो का गांव में लौटना माकनपुर वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं था । 

उस बांध की कहानी भी अजीब थी। बतातें हैं गांव के बडे़- बुजुर्ग ” बीस पचीस साल पहले आये  सुखाड़ से गांव में भयानक अकाल पड़ा था। जिस कारण माकनपुर गाँव के चारों तरफ हाहाकार और अफरातफरी मची हुई थी। न खाने के लिए लोगों के पास दाने थे और न पीने का पानी। सूखे के कारण कुंआ-पोखर का पानी भी लोगों को नहीं जूट पा रहा था। पानी बिना माय -मवेशी जहाँ जहाँ दौडते फिर रहे थे। सरकार की ओर से खाने के लिए लोगों  को जो बजरी दी जा रही थी, उसके लिए भी घंटो प्रतिक्षा करनी पड़ती तब कहीं ” डूभा ” भर बजरी हाथ लगती। यह अकाल तो जैसे हम लोगों के लिए ही आया था। सेठ मनिलाल जैसे लोग तो अकाल में भी मालामाल हो रहे थे। कोडियों के भाव सेठ गाँव वालों का  खेत बारी खरीद रहा था। और लोग मजबूरी में उसके हाथ बेच रहे थे। जब जीवन ही न बचे तो जगह जमीन किस काम का। लोग सोचने को विवश् थे। लोगों का कोई भी मोल नहीं। दस बीस टके में कोई भी काम करने को तैयार। हर तरफ बेकारी और बेरोजगारी का आलम पसरा हुआ था। कितनों को तो पानी पीकर जीने को मजबूर देखा है हमने। उन दिनों गाँव का मुखिया जीतलाल महतो थे। दबंग और काबिल भी। किसी काम को करने-करवाने का मादा रखते थे। लोगों के दुख दर्द में भी शामिल होते थे। पूरे प्रखण्ड में उनका दबदबा था। गाँव में वही एक ऐसा मर्द थे जिनसे सेठ मनिलाल भी दबता था। एक दिन उन्होंने गाँव वालों की एक आम बैठक बुलाई और सबके सामने कहा ” इस तरह हाथ पे हाथ धरे बैठे रह कर हम इस अकाल का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। अकाल से मुकाबला करने के लिए हमारे पास एक आइडिया है। गाँव के बाहर जो गैरमजुरआ जमीन पडी़ है और जिस पर सबका हक है, उस पर एक विशाल बांध बनाया जाए..! “

” भला इस भयानक अकाल में बांध कैसे बने..? “

” मैं जानता हूँ , आज भी ऐसे कई घर होंगे जहां चुल्हा नहीं जला होगा..?? ‘ 

” फिर भी आप बांध की बात कर रहे है?? “पुनः भीड़ से बात उछली। 

” इसका उपाय है, अकाल राहत कोष से कुंआ और पोखर  खुदवाने के लिए सरकार पैसे दे रही है..! “मुखिया ने कहा ” हाँ, उसमें खटने वालों  को मजदूरी भी दी जायेगी..! “

सुन कर लोग बहुत खुश हुए  । पहली बार उन्हें लगा, सरकार का ध्यान है हम सब पर। 

” लेकिन हमने सुना है, कि ब्लॉक से जल्दी पैसे नहीं निकलते हैं। “

 मैंने अपनी बात रखी थी ” फिर खटने वालों को आप मजूरी कैसे देंगे ? “

” इसका भी जुगाड़ हो जायेगा, तुम सब चिंता मत करो..।” इसी के साथ मुखिया जी उठ कर चल दिए थे। 

बाद में कुछ लोगों से हमने सुना था कि उसी जमीन पर पहले सेठ एक बांध बनाने के का मनसुबा बना रखा था। अपने ही पैसों से। उसका तर्क था कि बांध बनाने में भले ही उसका पैसा और खर्च हो। लेकिन बांध दस भयाद का ही रहेगा। ‌। गाँव वाले इस पर राजी नहीं हुए  ” सेठ और सांप पर कभी भरोसा नहीं है करना चाहिए ” गाँव वालों का अपना ही तर्क था। 

मुखिया चुनाव को लेकर सेठ और मुखिया जीतलाल दोनों ही प्रतिद्वंद्वी थे। फिर भी मुखिया ने एक हथ नोट लिख कर सेठ से पचास हजार रुपये का कर्ज लेकर बांध का काम दूसरे दिन से  शुरू करवा दिया था..! ” कहते कहते तिलक महतो कुछ अटके अटके से लगे। जैसे गले में मछली का बड़ा कांटा फंस गया हो  । 

” क्या हुआ काका  ! आगे भी तो बताए..? ” एक लड़के ने उन्हें उकसाया था। 

” मुझे शक हो रहा है, कहीं वही हथनोट, बांध हड़पने का हथकंडा अपनाया तो नहीं है सेठ ने..? “

” काका, लगता है, आपका शक सही है..! ” उसी लड़के ने कहा तो, बहुतों ने चौंक कर उसकी तरफ देखने लगे। वह कह रहा था ” एक दिन खुद मैंने अपनी कानों उसके मुंह से सुना है, वह कह रहा था कि ” देखो, मुखिया का लिखा वो हथनोट कागज है हमारे पास, बांध खोंडवाने में उन्होंने मुझसे पचास हजार रुपये उधार लिए थे, कहे थे, बाद में लौटा देंगे, पर नहीं लौटाए । ” पूरे के पूरे पचास हजार रुपये खर्च हुए हैं मेरा उस बांध के पीछे..! ” अंत में अपनी बात पर जोर देकर कहा था। ” और उस हथनोट को बहुतों को दिखाया भी था। 

” पर ऐसा कैसे हो सकता है  ..? ” तिलक महतो कुछ याद करते हुए बोले ” मुखिया जी ने सेठ का पूरा पैसा वापस कर दिया था और यह एक सब कुछ मेरे सामने ही हुआ था। “

” ऐसा भी तो हो सकता है कि तब मुखिया जी वह हथनोट लेना भूल गए हों..! “

” सोचा होगा किसी दिन ले लेंगे..! ” किसी ने जोडा था। 

” हां, पर वो किसी दिन आया ही नहीं  ! ” तिलक महतो ने आहिस्ता से बात आगे बढ़ाते हुए कहा था ” क्योंकि मुखिया जीतलाल महतो और सेठ मनिलाल का दूबारा मुलाकात ही नहीं हो सकी। बांध का काम पूरा हो जाने के कुछ ही दिन बाद मुखिया जी तीर्थ पर निकल गए थे। लेकिन जीते जी न तो वो खुद वापस गाँव लौटे और न उनकी लाश ही लौटी थी। काशी के दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों से फिसल कर गिरे तो दूबारा न उठ सके। छोटा पोता साथ था, उसी ने वहीं उनकी दाह-संस्कार कर दिया था। 

इधर सप्ताह दिन बाद ही बीडीओ को पटा-सटा कर सेठ मनिलाल माकनपुर का मनोनीत मुखिया बन बैठा। 

” सेठ की गहरी चाल को हम अच्छी तरह समझ गए है बाबा..! ” इस बार बीस वर्षीय युवा नरेश सामने आकर बोला ” मुखिया के हथनोट को सेठ हथियार बना बांध हडपना चाहता है, ऐसा हम हरगिज़ नहीं होने देंगे..! “

नरेश के साथ और कुछ युवा उसके अगल बगल खड़े हो गये थे। यह देख तिलक महतो को खुशी भी हुई और डर भी ” जाने सेठ इस पर क्या सोच रहा होगा  ? और उसकी अगली चाल क्या होगी  ? “

गाँव में लौटे तिलक महतो का महीना हो चला था। बांध को लेकर अब तक वो कईयों से मिल चुके थे। परन्तु किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके थे। लेकिन इतना जरूर हुआ था कि अब तीनों टोलों के मुहाने से एक ही बात बाहर आने लगी थी ” बांध दस भयाद का है और रहेगा..! इसके लिए हमें जो भी   कुछ करना होगा, वो हम करेंगे, लड़ना होगा तो लड़ेंगे भी..! “

” जवाब में सेठ अपने मकान से जोर से मुंह फाड़ता”  ” पचीस बर्षों से बांध का मालगुजारी हम अकेले देते आ रहे है-  दस भयाद नहीं..! “”

इस तरह दावे- प्रति दवे के बीच बांध का विवाद दिनों दिन और गहराता जा रहा था। वहीं मछली का धंधा बंद हो जाने से गांव के कई परिवारों के सामने भूखमरी का सवाल उठ खड़ा हो गया था। ढिबरा और सुदना जैसे कितनों को ही ठीके का मजदूर बनने पर मजबूर होना पड़ा था। आज भी काम की तलाश में कुछ इधर उधर भटकते नज़र आ रहे थे। लेकिन बांध के मुद्दे से खुद को जुदा नहीं कर पा रहे थे। मानो बांध नहीं कोई अन्न भंडार हो। 

” सेठ-साहूकारों को कभी पनाह नहीं देनी चाहिए, नहीं तो एक दिन वो आपको जहर दे देगा..! ” गाँव में बांध के साथ साथ यह भी चर्चा का विषय बना हुआ था। गाँव वाले भूले नहीं थे। जब सेठ मनिलाल के बाप बनवारी लाल को अपनी चलती दुकान छोड़ नगड़ी से भागना पड़ा था और कई जगहों से ठुकराये जाने के बाद, यही माकनपुर में आकर पनाह मिली थी। तब किसे पता था कि इसी साहूकार का बेटा एक दिन पूरे माकनपुर गाँव वालों के लिए मुसीबत का कारण बनेगा। मुखिया को भी कहां ख्याल रहा कि जिसे वह पनाह दिला रहे है वो एक ऐसा काला नाग है जो एक दिन गाँव वालों के आगे जहर उगलेगा। 

बनवारी लाल पहले धीरे धीरे और फिर तेजी से फलने फूलने लगा था। बनवारी लाल इसी बात से खुश था कि उसे रहने का ठौर ठिकाना और दो  पैसा कमाने का जरिया मिल गया था। और मुखिया जी  यही सोचकर खुश थे कि उसने गाँव वालों के लिए एक अच्छा काम कर दिया है । इसके पहले गाँव वालों को सामान पतर लाने के लिए मीलों दूर पैदल बोकारो, झरिया तो कभी माराफारी जाना पड़ता था। ‌। तब कहीं जरूरत की चीजों का जुगाड़ हो पाता था। 

  मिसिर टोला में एक छोटे से किराये के मकान से बनवारी लाल अपना धंधा-पानी शुरू किया था। फिर धीरे धीरे उसमें उसने लगान-बझान  धंधा भी जोड़ दिया था। सेठ मनिलाल के हाथों दुकानदारी की बागडोर आते-आते हालात ऐसी हो गई थी कि माकनपुर गाँव के अधिकांश हिस्सा सेठ मनिलाल की बही-खातों में समा गई थीं। मनिलाल ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा था  । मनिलाल को देख कर ऐसा नहीं लगता था कि उसकी रगों में बनवारी लाल का लहू दौड़ रहा है। उसकी गतिविधियों से तो और भी नहीं लगता था। उसकी आंखें हमेशा विरोधियों का पीछा करती और उन्हें तबाह करने का षडयंत्र रचती थीं। उन्हें लक्षमी पर अखंड विश्वास था। पैसों के बल पर थाने की पुलिस के साथ  ऐसा गठजोड़ रिश्ता हो गया था कि जब जिसे चाहे वह अंदर करवा देता या फिर लापता भी। लोग सेठ से पंगा लेने से डरते, उससे दूर दूर भागते थे। दिन दहाड़े स्कूल टांड में चिलंगी ठाकुर की हत्या कराने के बाद तो लोग सेठ का नाम लेने से डरने लगे थे। 

सुबह का दिशा- मैदान कर घर लौटे तिलक महतो ने घर में कदम रखा भी नहीं नहीं था कि सुदना ने बताया ” काका, सेठ ने, बांध का मुंह बंद कर दिया है, खेतों में पानी जाना बंद हो गया है..! “

 सुन कर तिलक महतो चिंतित हो उठे थे ” यह तो उसने बहुत बुरा किया है “

उन्हें लगने लगा कि खेतों में लहलहाती धान की फसलें, अध पक्की बालियां, उनका मुंह चिढा रही हैं। वह चिंताग्रस्त हो उठे थे। दोपहर का खाना उनसे खाया नहीं गया। 

जमाने बाद तिलक महतो ब्लॉक आये थे। यह विचित्र संयोग था। बीस साल पहले जब आया था, तब बांध खुदवाने की बात थी ‌। आज उन्हें बांध से बेदखल होने की चिंता खींच लाई थी। इतने सालों में  यहाँ सब कुछ बदल गया था । जहाँ पहले बीडीओ साहब बैठा करते थे, आज पुरानी फाइलों से वह जगह ठसा – ठस भरी हुई थीं। उसी के बगल में एक बुढ़ा चपरासी, एक बुढ़ी कुर्सी पर बैठा खैनी थाप रहा था । नरेश ने जाकर उसी से कुछ पूछा। थोड़ी देर बाद वे दोनों बीडीओ साहब के सामने खड़े थे। तिलक महतो ने अपने आने की बात रखी और जल्द समाधान की गुहार लगाई। बदले में उन्हें टालमटोल सा जवाब दिया मिला -” ठीक है, आपकी चिंता जायज़ है या नाजायज, यह  जांच का विषय है । क्या है न, यह काफी पुराना माामला है, समय तो लगेगा ही। फिर आइए किसी दिन..! “

बाहर निकल तिलक महतो ने नरेश से कहा ” हमें नहीं लगता है, यह हमारी कोई मदद करेगा ? हम फिर आयेंगे, वो फिर कोई बहाना ढूंढेगा..! “

” बाबा, सब जगह की यही हाल है, थाना जाओ तो रूपये लाओ, ब्लॉक आओ, तो रूपये लाओ, हर जगह पैसे चाहिए – जांच- पडताल की भी..! ” नरेश कुछ ज्यादा ही बोल गया था। 

दूसरे दिन वे लोग थाने गए। बांध हडपने से लेकर धान की फसलों का मरने का रोना रोये, यहाँ भी मदद की गुहार लगाई। गाँव वालों की ओर से बाकायदा लिखित आवेदन भी दिया गया। 

” ठीक है, आपलोग जाइए, मैं आऊंगा किसी दिन..! “दरोगा ने कहा था।  

लेकिन सप्ताह दिन बीत गया। न दारोगा आये न थाने का कोई चौकीदार ही। धान की फसलों के मर जाने की फरियाद भी अनसुना कर दिया गया था। इससे माकनपुर गाँव वालों के मन में बडा़ विक्षोभ का भाव देखा गया! साथ ही असंतोष का स्वर भी फूटने लगा। नरेश ने कहा ” दारोगा को सेठ से पैसे मिलता है। वह हमारी मदद क्यों करेगा  ? “

” हर सप्ताह उसी बांध से मारा हुआ ताजा मछली थाने जाता है..! ” ढिबरा तेली ने कहा। 

” रात को चौकीदार बांध का पहरा देता है..! ” सुदना बोला। 

” अब तो धान को मरने से कोई नहीं बचा सकता है..! ” कोई बोला। 

” मै तो कहता हूँ, सेठ से समझौता कर लो, इसी में सबकी भलाई है..!! ” गाँव के बुजुर्ग तालो लोहार ने सुझाव रखा। 

” इसका मतलब अब हम सेठ का पैर पकड़ कर फरियाद करें  ? ” नरेश इस पर नराज हो उठा ” मै कहता हूँ, चलो बांध का मुहाना खोल देते है, जो होगा देखा जायेगा..! “

” हां, हां.नरेश ठीक कह रहा है..! ” इसी के साथ कई युवा आगे बढ़ आये थे। सब के सब बमके मूड़ में  ! 

” अगर सेठ का कोई आदमी रोकने आया तो उठा कर उसी बांध में फेंक देंगे, कुकुआ कर मरेगा  स्याला.! ” यह ढिबरा था। माछ का धंधा बंद हो जाने के बाद अब वह अक्सर मार काट की  बात करने लगा था। 

सभी कुछ न कुछ बोल रहे थे। लेकिन तिलक महतो चुप थे। खामोश थे। सबकी निगाहें अब उन्हीं पर टिकी थीं। तिलक महतो ने कहा  ” सभी ठीक कह रहे हो, लेकिन जो तुम लोगों ने कहा, उसी को करने के लिए सेठ हमें उकसा रहा है। पर इसके पीछे छुपी सेठ मनिलाल की मंशा को तुम सब समझ नहीं पा रहे हो..! ” 

बैठकी में सन्नाटा छा गया और लोग बोलना जैसे भूल गए। 

” हाँ, सेठ मनिलाल यही चाहता है। ” तिलक महतो ने  गंभीरता से कहा ” सेठ चाहता है कि जोश में आकर, गाँव वाले अपना होशो हवास भूला दें, ताकि हम उन्हें ठिकाने लगा सकें। मार पीट और लूट पाट के बहाने पुलिस को पीछे लगा दें। गाँव की हालत और हालात दोनों खराब! परन्तु हमें अभी ऐसा कुछ नहीं करना है, सिर्फ टोह लगाते रहना है। “

” तब तक धान शायद ही बचें। ” किसी ने आशंका जताई। 

” धान मरता है तो मरने दो, तभी हम सेठ को भी मार सकेंगे! नरेश ने फिर मुंह खोला ” थाना पुलिस को पैसा और माछ खिला कर सेठ समझता है, कानून को उसने खरीद लिया है  ! “

” मै फिर कहता हूँ, हमें जज्बात से नहीं, बुद्धि से काम लेना है। सेठ पुलिस खरीदे या पूरे थाना खरीद ले, हमें उसे युक्ति से हराना होगा। दारोगा बिका है, उसके ऊपर भी तो कोई हैं..! “

तिलक महतो की बात का इतना असर हुआ कि सभी शांत दिखे। पर यह शांति ऊपरी तलछट की तरह लग रही थी । भीतर भीतर लावा फूटने जैसा ही था। 

तिलक महतो खुद एक द्वंद्व में घिरते नजर आ रहे थे ” भयाद बांध कही हिंसा का कुरूक्षेत्र तो नहीं बन जायेगा  ? युवाओं में धैर्य का अभाव साफ देखा गया है। ” 

बांध को लेकर तिलक महतो का खाना सोना सब प्रभावित हो रहा था। दिन चर्या तो छुट ही गया था। रात को ठीक से सोने का भी समय नहीं मिल रहा था। बांध ने उनके दिलो दिमाग को बांधकर रख दिया था। इधर तिलक महतो का यह हाल था और उधर सेठ मनिलाल का रवैया गाँव वालों के प्रति खून खोलने वाली थी। 

सुबह का समय था। नरेश का बाप फेकू महतो अभी अभी दिशा- मैदान से होकर आया था। तभी सेठ का एक नौकर आकर कहा ” आपको मालिक ने बुलाया है..! ” और वह चला गया था। उस वक्त नरेश घर में नहीं था। सेठ के सभी नौकर उसे मालिक ही कहते थे। 

उसी सेठ ने फेकू महतो से कहा ” अब तो तुम्हारा बेटा नेता बन गया है। थाना – ब्लॉक तक जाने लगा है। पैसा भी खूब कमाता होगा, मेरा बकाया चुका दो- आज ही शाम तक   ! “

 घर आकर उसने बेटे नरेश से कहा। सेठ की बही खाते में फेकू महतो के नाम पर बतौर एक हजार बकाया चल रहा था।  नरेश ने कहीं से पांच सौ लाकर बाप के हाथ रखा और बाकी पांच सौ उसने तिलक महतो से उधार लिया और बाप देते हुए कहा ” जाकर सेठ के मुंह फेंक आ। और हाँ, बही से अपना नाम कटवा लेना, नहीं तो उस कमीने सेठ को बदलते देर नहीं लगेगा  ..! “

  परन्तु बात यहीं खत्म नहीं हुई थी। बल्कि सेठ मनिलाल और माकनपुर गाँव वालों के बीच घमासान तो यहीं से शुरू हो गया था  । अब सेठ का सिपहिया  हर उस घर के दरवाजे पर लाठी पीटने लगा था जो सेठ के बही खाते में कर्जदार बने हुए थे और कर्ज चुकाने में लाचार और बेबस थे। सेठ उन लोगों से एक ही बात कहता -” हमारा कर्जा चुका दो, या फिर बांध की लड़ाई से दूर रहो, और तिलक महतो से भी..!  हम सब कर्जा माफ़ कर देंगे..! “

बहुतों ने अपने घर का जेवर गहना बेच बाच कर सेठ का कर्ज चुकता कर राहत की सांस ली। लेकिन गाँव में कुछ ऐसे भी लोग थे जिनके पास रहने का ठीक से घर नहीं था। खाने के लिए ढंग का बर्तन नहीं था, गहना जेवर का तो सवाल ही नहीं था। वे लोग सेठ का कर्जदार बने रहे। चाह कर भी सेठ के जाल से आज़ाद नहीं हो पाये। यही बात उस दिन शाम की बैठकी में छाई रही। पति  महरा को पहले 

बोलने की थर्ड क्लास की बीमारी थी। उसने कहा ” इस तरह सेठ हमारी एकता को तोड़ना चाहता है  ।”

” सेठ को मुंहतोड़ जवाब देना ही होग  …!”नरेश ने जैसे हवा में फायर कर दिया था। 

बैठकी अभी चल ही रही थी कि वहां भागती हुई ढिबरा तेली की पत्नी आई और हांफती हुई कहने लगी ” मेरे पति को बीच रास्ते से सेठ के आदमियों ने उठा लिया है..! ” ढिबरा पर सेठ का चार सौ रूपये बकाया था और वह नहीं देने की बातें करने लगा था। 

एक पल के लिए बैठकी में सन्नाटा पसर गया था। सबका मुंह बंद। केवल सांसों की आवाज आ रही थीं। 

” देख लो हमसे टकराने का अंजाम..! “सेठ घर में कहकहे लगा रहा  था। 

एक बारगी से सबका मुंह खुल गया था। जो बैठे थे, उठ कर खड़े हो गये। गुस्से में सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे, मानो कह रहे हों, अब तो हमें भी ईंट का जवाब पत्थर की तरह देना होगा। सुदना ने सबसे पहले मुंह खोला ” हद हो गई, अब तो सेठ भेड़- बकरी की तरह हमें हांकने लगा है..! “

” हाथ पे हाथ धरे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा- कुछ करो  ! ” पति महरा ने भी हुंकार भरी। 

” सावधान रहो! ” नरेश उठ खड़ा हुआ ” सबसे पहले हमें उन सालों को सबक सिखाना होगा जो, बाहर से आकर यहाँ सेठ का हुकूम बजा रहे हैं, उसकी गुलामी कर रहे हैं! “

” सबसे पहले हमें ढिबरा को छुुडाना होगा..! ” तिलक महतो  सौ रूपये नरेश को देते हुए कहा ” बाकी से चंदा कर लो, सेठ को उसकी करनी भुगतनी पड़ेगी..। ” तिलक महतो प्रस्तिथि को तोलने में लग गए थे। 

बैठकी समाप्त के पूर्व गाँव वालों ने एक सामूहिक निर्णय यह लिया कि आज के बाद गाँव का कोई भी आदमी सेठ की दुकान से कोई भी समान- पतर नहीं लेगा, फिर भी यदि कोई लेता है तो वह हमारा भी विरोधी समझा जायेगा। इसका नतीजा उत्साह वर्धक निकला । गाँव  वालों ने सेठ मनिलाल की दुकान से समान पतर लेना बिलकुल बंद कर दिया। इतना ही नहीं जो लोग सेठ के यहाँ मजदूरी करते थे,उसने भी सेठ के यहाँ काम करना छोड़ बांध की लड़ाई में गाँव वालों के साथ हो गये। सेठ का बौखलाना था, खूब बौखलाया। उसके मुंह पर यह जोर का तमाचा था। उसका वजूद हिल उठा। 

एक दिन शाम को तिलक महतो नरेश के साथ कहीं से घर लौट रहे थे। रास्ते में दोनों की मुलाकात अचानक जगतलाल से हो गयी। जगतलाल को लेकर लोगों के पास अलग अलग विचार थे। उसके प्रति लोग अजीब अजीब बातें करते थे। जैसे कि पुलिस और ब्लॉक के अधिकारी उनसे डरते हैं। वो साफ़ तौर पर नक्सली है.! पिछले चुनाव का उन्होंने बहिष्कार कर दिया था आदि.. आदि! 

उसने सीधे तिलक महतो से ही पूछा ” क्या बात है तिलक महतो जी, आज कल, थाना- ब्लॉक की बड़ी चक्कर लगा रहे हैं, कोई विशेष बात है क्या  ? “

तिलक महतो ने जगतलाल को बड़ी गहरी भाव से देखा और सोचा कि बांध की बात  इस आदमी को बतानी चाहिए। लेकिन तत्काल उन्हें बोध हुआ ऐसे लोगों से ऐसे मामले छुपे नहीं रहते। बोले ” आप तो सब जानते है, अरे वही बांध का मामला है। सेठ उसे हडपने पर उतर आया है। पूरे गाँव को बांध से बेदखल करने पर आमादा है..! “

जगतलाल ने पहले नरेश की ओर देखा, वह उसी को देख रहा था। फिर बोला ” तो आप क्या समझते है, इस प्रकार चक्कर लगाने से बांध गाँव वालों को वापस मिल जायेगा ? अरे, थाना – ब्लॉक ऐसे सेठों की रखैल होती हैं। यहाँ से आपको कुछ भी मदद नहीं मिलेगी, भूल जाओ बांध को..! “

तिलक महतो को लगा कि जगत शायद ठीक कह रहा है। एक दिन नरेश भी  कह रहा था ‘” बाबा, बांध की जांच करवाने के भी पैसे चाहिए, हम गरीबों की कोई नहीं सुनेगा..। “

” तो अब हमें क्या करना चाहिए..? “

न चाहते हुए भी तिलक महतो के मुंह से बात फिसल गई। 

” करना क्या है? सेठ का सफाया कर दो, झमेला अपने आप खत्म हो जायेगा..! “

” बाद में गाँव वाले कोर्ट – कचहरी का चक्कर लगाते लगाते मर खप जाएं..! ” तिलक महतो अनमने भाव से बोल उठे ” आप लोग हिंसा के सिवाय दूसरी बात सोंच ही नहीं सकते..! ” इसके बाद दोनों ने एक दूसरे को न देखा और न कुछ कहा। अपनी दिशा में आगे बढ़ गये। कुछ दूर बढने पर तिलक महतो की बात सुनाई पडी़ ” बांध को वापस हासिल करने के लिए हमें किसी बाहरी हथियार की जरूरत नहीं है। अहिंसा के बल पर गांधीजी ने देश हासिल कर लिए थे, हम बांध हासिल नहीं कर सकते हैं..! “

जवाब में जगतलाल ने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़ गया था। लेकिन नरेश अंदर से बैचेन दिखा। 

जगतलाल के बारे में बहुतों को बहुत कुछ मालूम था। गगनपुर की धन कटनी और पुलिस मुठभेड़ की घटना को लोग आज भी नहीं भूले हैं। उन्हीं के दम पर सेठ की कब्जाई जमीन गरीबों को वापस मिली थीं। 

उस ठंडी रात को हवा पागलों जैसी इधर से उधर दौड़ लगा रही थीं। ठंडी हवा देह को छेदने को आतूर दिख रही थीं। पूरी बस्ती में सन्नाटा पसरा हुआ था। रह रह कर कुतों के किकियाने की आवाज रात को और भी डरावना बना रही थी। उसी समय ढिबरा तेली के दरवाजे पर दो बार “ठक – ठक ” की आवाज हुई। ढिबरा को लगा, बाहर कोई है और उससे कोई बात करनी है। क्या पता तिलक महतो ने ही किसी को भेजा हो। क्या पता बांध का मुहाना खोलने की ही बात हो। धान मरने जा रहे थे। पानी के अभाव में अधपके धान अगर मर जायेगा तो गाँव वाले भी मर जायेंगे। बांध का मुहाना खोलना बेहद जरुरी था। जब से बांध की लड़ाई शुरू हुई है, सब कुछ प्रभावित हो रहा था। लोगों का खाना-सोना तक भी!  अब तो हालात ऐसी हो आई थी कि गाँव के हर घर के एक मर्द का कान हमेशा खड़ा रहता था– रात रात भर!  जाने कब क्या हों। ढिबरा खाट से उठकर दरवाजे तक गया। फटी चादर देह पर लपेट रखी थी उसने। दरवाजे की हुड़की खोलते ही ताबड़तोड़ लाठियां बरसने लगी उस पर। उसकी चीख़ ने लोगों की नींद उड़ा दी। जब तक गाँव वाले उस तक पहुंचते हमलावर भाग चुके थे। 

” बांध की लड़ाई में और हमें कितनी मार खानी पडेगी काका  ! ” दरवाजे के पास कुकड़ू  बैठा लहूलुहान ढिबरा ने तिलक महतो से पूछा था। 

” बाबा, यह सब कब तक चलेगा? कब तक हम सेठ की लाठी की मार खाते रहें..? ” नरेश ने भी यही पूछा। 

” लाठी के बदले लाठी चलाना, इस समस्या का हल नहीं है नरेश, हमें सूझ बूझ से काम लेना होगा..! “

रात को ढिबरा तेली पर हुए हमले को लेकर गाँव के दस लोग थाने गये। रिपोर्ट लिखवाई गयी। थानेदार ने कहा ” किसी दिन जांच करने हम आयेंगे..! “

”  किसी दिन क्यों, आज क्यों नहीं..? “पति बोल उठा। 

” अब तुम्हारे कहने पर हम थाना चलाएं..? “दारोगा चीखा था। 

” नहीं, सेठ मनिलाल के कहने पर चलाइये..! “सुदना सुलग उठा। 

” अबे, तेरी तो.. ! ” दारोगा रासबिहारी सिंह ने सुदना पर हाथ उठा दिया था। लेकिन उतनी ही फूर्ती से नरेश ने उसका उठा हाथ पकड़ लिया था  ” सेठ की लाठी ही सही नहीं जा रही है, फिर आपका यह हाथ कैसे सहूं  ? :

  दारोगा क्रोध से आग बुला हो उठा। गुस्से से उसकी देह कांपने लगा था। चौकीदार ने उन सभी को किसी तरह समझा बुझा कर थाने से बाहर ले आया। 

गाँव में पुलिस तो नहीं आयी लेकिन दो दिन बाद पति महरा पर सेठ के सिपहिया ने फिर हमला कर दिया। पर इस बार उसे लेने के देने पड गया। हाफ पेंट की जेब में रखे पत्थर से पति ने उसका सर फोड़ दी। सिपहिया माथा पकड़े भाग खड़ा हुआ। शाम को पति ढिबरा से मिलने आया था। घर लौट रहा था। बांध पेंदा पर छिप कर बैठा लहरी सिंह ने तभी उस पर लाठी चला दी थी। 

    गाँव वालों पर लगातार हो रहे हमले से तिलक महतो खाशा परेशान हो उठे थे। उनके लिए खुशी की बात यह थी कि इतना सब कुछ होने के बावजूद गाँव वाले उनके साथ मजबूती के साथ खड़े थे। वहीं गाँव वालों की इस एकता को तोड़ने में सेठ की हर कोशिश अभी तक विफल रही थी।

      कई उतार चढ़ाव और पथरीले रास्तों को पार करते, हांफते हुए पैदल वे दोनों पहुंचे थे उस जन- अदालत में ! दोपहर का समय था और वातावरण में बारूदी गंध फली हुई थीं। विशाल सखुवा और शीशम पेड़ों के बीच खुले आसमान के नीचे खुले मैदान में लगी थी वह जन अदालत। सुबह का हल्का- फुल्का नाश्ता कर नरेश तथा अन्य तीन को साथ लिए तिलक महतो जब माकनपुर से चले तो उनके साथ साथ विचारों का एक झुंड भी चला था। इस बात का आभास उन्हें तब होता जब चलते चलते यकायक वह रूक जाते! फिर एक झटके से चल पडते! जैसे कोई माल वाहक रेल गाड़ी हो। इस तरह उनका चलना, फिर रूकना, फिर चलना बाकी चार के लिए एक अबूझ पहेली थी। उनमें से किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि तिलक महतो का इस तरह चलना, फिर रूकना, थकान का असर है या फिर विचारों का द्ंद  ! कुछ भी स्पष्ट नहीं था। 

इस तरह के जन- अदालत में पहली बार वे पांचों पहुंचे थे और भक बिलाय की तरह वहां की सारी गतिविधियों को टुकुर टुकुर भाल रहे थे। सब कुछ अविस्मरणीय  ! अन सोंचा, अनजाना सा  ! इस जन अदालत में कोई कानून नहीं चलता है  । चलता है तो सिर्फ और सिर्फ कमांडर गणपत दा का आदेश। झगड़ा छोटा हो या बड़ा। मामला हत्या- ब्लात्कार का हो या शादी – बिहा का। जहां कुछ गफलत हुई कि लोग अर्जी लेकर पहुंच गए जन अदालत में। यहां एक ही बात कही जाती है ” गलती की है तो मान लो..! ” वरना सजा डबल। 

वे पांचों वहीं पंगत लगाकर बैठ गए थे। उधर गणपत दा के बगल में ही जगतलाल  बैठा हुआ था ।  उन दोनों की नजर उन पांचों पर पड़ चुकी थी। वहीं चेरका मिल गया था। हां, हां वही चेरका, जिसने अपनी एक हड़पी हुई जमीन के खातिर पांच साल पहले मनिलाल के बाप की हत्या कर भाग गया था। चेरका ने बताया था कि सेठ की हत्या के बाद वह किस तरह मारा मारा फिर रहा था। फिर किस तरह वह जन अदालत में पहुंचा और आज वह गणपत दा का बॉडीगार्ड बना हुआ था। 

   अदालत उठने का समय हो गया था। पर न तो गणपत दा ने उन लोगों से कुछ पूछा और न तिलक महतो ने ही कुछ कहा। उनको अभी भी खुद पर विश्वास नहीं हो पा रहा था कि वे पांचों नक्सलियों की मांद में बैठे हैं। उनकी मनोदशा से साफ लगता वो किसी गहरी उलझन में है  । जगतलाल से उनकी दशा देखी नहीं गयी ‌। पूछ लिया ” तिलक महतो जी सब ठीक तो है। आप जिस उलझन में है मै समझ सकता हूँ। आपकी परेशानी हमने ” बॉस ” को बता दी है। आपकी सोच आपकी परेशानी से मेल नहीं खाती है। सोच बदलना होगा..! “

” आप यहाँ आए हैं तो अपनी पीड़ा बताइये..! ” गणपत दा ने कहना शुरू किया था ” सबका हल है, थाना पुलिस से आपको कोई मदद नहीं मिलेगी। थाना पुलिस पूंजीपतियों की रखैल होती है, वो सब बिकाऊ है। अगर पुलिस गरीबों की मदद करती, उनकी इज्जत आबरू को बचाने आगे आती तो समाज में आज इतनी विषमताएं नहीं होती। आज सेठ मनिलाल इतना ताकतवर नहीं होता। ढिबरा पर हुए हमले की रिपोर्ट लिखाने के बाद भी गांव में पुलिस नहीं गयी। फिर पति पर हमला हो गया..! ” तिलक महतो ने नरेश की ओर देखा

 मानो कह रहे हों कि ये सब बातें यहाँ तक कैसे पहुंची  ! लेकिन तत्काल उसे याद आया कि ऐसी खबरें इन लोगों तक पहुंचना कोई मुश्किल नहीं। हर गाँव में इनके गुप्तचर और घुसपैठिये मौजूद रहते हैं। 

    गणपत दा कह रहे थे ” देखिये तिलक जी, जिस तरह आप सेठ मनिलाल का विरोध कर रहे हैं, उससे बांध तो कभी हासिल नहीं होगा  । आपके इस हठ से बांध जरूर छिन जायेगा गाँव वालों का। हक अगर कोई छिन रहा है तो उस हक को बचाने  के लिए मरने- मारने को तैयार रहना होगा। आज हक माँगने से नहीं, छिनना पड़ता है। हक के लिए हथियार उठाना गलत नहीं है। यह समय की मांग है और तभी समाज में बदलाव आयेगा..! “

” आप किस बदलाव की बात कर रहे है? ” तिलक महतो अभी चुके नहीं थे। उन्होंने गणपत दा के चेहरे को नोचना शुरू कर दिया था ” हथियार उठाकर आप लोग कौन सा बदलाव ले आये  ? आप तो चालीस सालों से बदलाव के नारे लगा रहे हैं, लेकिन बदलाव तो दूर दूर तक नजर नहीं आते। वही बेरोजगारी, वही फटेहाली  ! सब तरफ तो बदहाली ही बदहाली दिखाई देती है मुझे, फिर आप किस बदलाव की बात कर रहे हैं  ? उल्टे उपद्रव ग्रस्त क्षेत्रों में विकास के सारे कार्य रूक से गये हैं। डर से उधर कोई जाना नहीं चाहते हैं। जनता की हितैषी से ही जनता क्यों डरती है  ?  सड़क, पानी- बिजली और स्कूल शिक्षा सभी तो विकास की बाट जोह रहे हैं। फिर बंदूक उठाकर आप लोगों ने समाज को क्या दिया…? “

” हिम्मत  ! हिम्मत दी है हमने लोगों को..! ” गणपत दा ने अपना बचाव करते हुए कहा  ” आज एक सम्मान पूूूर्वक जीवन जीने के लिए आदमी को हिम्मत और हथियार दोनों की जरूरत है..! “

” हां, हिम्मत  ! * तिलक महतो का लहजा व्यंग्यात्मक हो गया था ” खेशमी गाँव वालों ने हिम्मत दिखाई थी। क्या हुआ उन सबों का  ? कुछ बताएंगें हमें..? पुलिस ने पूरा का पूरा गाँव ही उजाड़ दी थी । फिर दूबारा आज तक बस नहीं पाया  ! लेकिन हमें अपने गाँव बसाये रखना है – उजाडना नहीं है  ..! “

” तब फिर हमारे जन अदालत में आने का अपना मकसद बताएगें हमें..? “गणपत दा का स्वर तल्ख़ भरा था। 

” बांध हासिल करने में आपकी मदद चाहिए। लेकिन खून-खराबा हमें पसंद नहीं है। “

” आप फोडा़- कैंसर इलाज के लिए जब डॉक्टर के पास जाते है तो, दवा खुद बताते है कि दवा डाक्टर लिखता है? हमारे पास दोनों नहीं चलेगा। बांध हासिल करनी है तो सेठ का पचास हजार लौटा दो जो संभव नहीं लगता। दूसरा विकल्प है सेठ का सफाया  ! बांध स्वत:गाँव वालों को मिल जायेगा..। “

”  हर काम में आप लोग हत्या-सफाया की ही बात क्यों करते हैं  ? “

” क्योंकि सेठ जैसे लोग बंदूक की भाषा ही समझते हैं। एक बात और है यदि आप सेठ को नहीं मारते है तो सेठ आपको मार डालेगा, क्या खुद को मरना पसंद करेंगे आप  ? “

” हमें आपका सपोर्ट तो चाहिए लेकिन हथियार के बिना..! “

” लेकिन हमें दोनों चाहिए बाबा  ! हाथ भी और हथियार भी..! ” नरेश ने मुंह खोला था-” हाँ बाबा, सेठ की लाठी की मार खाने की ताकत अब हममें से किसी के पास नहीं रही है। वो कमीना सेठ गाय- बैलों की भाॅंति हर दिन हम पर लाठियाँ बरसवा रहा है और हम कराहने के सिवाय उसका कुछ नहीं कर पा रहे हैं..! “

तिलक महतो का चेहरा फक पड़ गया। नरेश से उन्हें ऐसी उम्मीद न थीं। एक नरेश ही था जिस पर तिलक महतो को बड़ा भरोसा था। वहीं गणपत दा और जगतलाल के चेहरे खिल उठे थे। नरेश के मार्फत माकनपुर गाँव में पाॅंव जमाने का रास्ता खुलने जा रहा था। जो कई प्रयासों के बावजूद आज तक उस गाँव में नक्सल ने कदम नहीं रख पाया था। इसके आगे तिलक महतो के मुंह से बकार न फुटा और अगले ही क्षण वो उठ खड़े हो गये थे। 

उस दिन के बाद से ही तिलक महतो उदास उदास रहने लगे। लोगों से मिलना जुलना भी कम कर दिए। बहुत बातों का कम और गोल मटोल जवाब देने लगे थे। युवा वर्ग ने नरेश को अपना नेता मान लिया था। उसी की अगुआई में अब बांध की लड़ाई की रणनीति तैयार होने लगी थी। गाँव का माहौल धीरे धीरे बदलने लगा था। इतना सब कुछ होने के बावजूद तिलक महतो के हम उम्र अब भी उनके साथ खड़े थे। मोटे तौर पर बांध की लड़ाई दो विचारों नरम दल और गरम दल के बीच फंसती जा रही थी और यही बात तिलक महतो को रह रह कर तिलमिला दे रही थी। वहीं सेठ मनिलाल की नजरों में अब भी तिलक महतो ही सबसे बड़ा खतरा बना हुआ था-  नरेश नहीं  ! उसके मन में हमेशा तिलक महतो खटकता था- नरेश नहीं। बांध की बुनियाद का गवाह तिलक महतो था- नरेश नहीं। कोर्ट में तिलक महतो की गवाही मजबूत मानी जायेगी- नरेश की नहीं  । इन सब बातों को याद कर सेठ मनिलाल रात को सो नहीं पाता था। तभी एक रात तिलक महतो को लेकर सेठ ने कडा निर्णय लिया था….! 

रात के दस सवा दस का वक्त था। तिलक महतो हल्की नींद सो रहे थे। तभी दरवाजे पर दस्तक पडी़। वह हडबड़ा कर उठ बैठे। आज कल वो अधजगे सा रहते है। दस्तक फिर पडी़। उन्हें लगा, बाहर कोई उनसे मिलने आया है। यही सोचकर उन्होंने दरवाजा खोल दिए। अगले ही क्षण उन पर लाठी-डंडों की बौछार शुरू हो गई थी। चीखने का भी उन्हें मौका नहीं मिला। कुरथी ढेढाने(पीटने) की तरह उन्हें पीट कर हमलावर भाग गए थे। थोड़ी देर बाद जब उन्हें होश आया तो सारा गाँव उनके आजू बाजू खड़े थे। नरेश ने आगे बढकर कहा -” बाबा, देख रहे हो न, आपकी अहिंसा का जवाब सेठ किस तरह दे रहा है  ? वो हमें बेवकूफ ही नहीं, मुंहतोड़ जवाब न देना वो हमारी कमजोरी भी समझ रहा है…..? “

तिलक महतो कराह कर रह गये। सारा बदन दर्द से दुख रहा था। नरेश को उसने एक बार देखा। कुछ कहना चाहे, पर कुछ कह न सके। 

” इस घटना की सूचना हमें थाने में देनी होगी..! ” चौकीदार सामने आकर बोला। 

” इससे कोई लाभ नहीं होगा। पुलिस को पहले से ही पता होगा..! ” नरेश ने चौकीदार से कहा । फिर नरेश, ढिबरा और पती  महरा के बीच कुछ बातें हुई। थोड़ी देर तक वहाँ गहमा गहमी की हालत रही। तदुपरांत सुदना और महरू को तिलक महतो की देख रेख में छोड़ वे तीनों रात के अंधेरे में किसी अज्ञात दिशा में बढते चले गए । 

     चारो तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। रात के अंधेरे में कुतों के भौंकने से गांव किसी श्मशान घाट की तरह लग रहा था।वे तीनों अब भी तेज कदमों से आगे बढते जा रहे थे। 

       दो दिन बाद गाँव का माहौल एक दम से गरम हो उठा था। सेठ मनिलाल के मकान की दीवार पर रात के अंधेरे में आकर अज्ञात लोगों ने लाल पोस्टर चिपका दिये थे। जिस पर लिखा था _ ” दुर्गा – नवमी के दिन तैयार रहना। हम सभी, भयाद बांध में मछली मारने आ रहे हैं। ” 

बात बस्ती में फैलते देर न लगी। तिलक महतो के कानों में भी पोस्टर की बात पड़ चुकी थी ” जाने बांध की लड़ाई में क्या मोड़ ले..! ” वह चिंतित हो उठे थे। 

गाँव के लोग आज उसी चबुतरे पर इकट्ठा खड़े थे। जहाँ आज से पचीस बरस पहले मनिलाल का बाप भटकते भटकते आकर अपने कुटुम्ब के साथ  डेरा डाला था। तब उसके सामने गाँव में अपने और अपने परिवार के लिए एक ठिकाना ढूंढना था। और आज उसी सेठ का बेटा गाँव वालों को बांध से बेदखल करने की जद्दोजहद कर रहा था। 

चंद रोज में ही नरेश के व्यवहार और व्यक्तिव में काफी बदलाव आ गया था। भाषा और बोली में भी। उसकी हर बात में एक नई सोच दिखाई देती थी। ऐसा गाँव वालों को महसूस होने लगा था। उस रात भी नरेश भीड़ से कह रहा था ” भाइयों,काका- काकियों  ! आपको पता है कि किसी चीज को हासिल करने के लिए हाथ आगे बढाना होता है। इतिहास गवाह है, बिना लड़े कभी जीत हासिल नहीं हुई  है। चाहे जमीन हो अथवा जोरू  ! दस भयाद का बांध आज हमसे छीना जा रहा है। उसके पानी से बेदखल किया  जा रहा है। यह हमें अब तभी मिलेगा, जब हम एक जूट होकर लडेंगे। बांध को हासिल करने के लिए हमें मर- मिटने को तैयार होना होगा। लाठी गोली भी खानी होंगी। तभी बांध मिल सकता है..! ” नरेश कुछ पल रूका  था ” सेठ के पास गोली बंदूक है, लाठी लठैतें हैं। हमें उन्हीं से लडनी है।  हमारे पास लाठी गोली नहीं, लेकिन हिम्मत की कोई कमी नहीं है। आखिरी दम तक हम लडेंगे, बस आप सबों साथ चाहिए. इंकलाब. जिंदाबाद ! इंकलाब जिंदाबाद  ! “

मुर्गे की बांग के साथ अपने पारम्परिक हथियारों से लैस गाँव वाले जब चले तो उनमें एक ज्वार सा उमड़ रहा था। आंदोलित युवाओं के आपार उत्साह से पैर सीधे नहीं पड रहे थे। मन के अंधेरे में मानो किसी ने मशाल जला दी हो। नारों और शब्दों के भावों से प्रतीत होता था कि उनमें चट्टानों से भी टकराने की कुव्वत आ गयी हो। लाल झंडे के साथ हथियार लिए लोगों का आगे बढ़ना बडे़ बदलाव के रूप में देखा जा रहा था। 

उधर तिलक महतो भी एक लडाई लड रहे थे। परन्तु अपने घर के बंद कमरे में। बैचेनी और व्याकुलता में डूबे तिलक महतो से खाट पे बैठा नहीं जा रहा था।  इस कोने से उस कोने तक चहलकदमी करते नजर आ रहे थे । उनकी बैचेनी को मापना बड़ी कठिन था। कई बार वो दरवाजे तक जा चुके थे। लेकिन जैसे ही दरवाजे की कुंडी तरफ हाथ बढाते, अचानक से पांव पीछे खींच लेते थे। तभी यकायक उनका ध्यान बंटा । सालों से एक ही जगह खूंटी पर टंगी लाइसेंसी बंदूक पर नज़र गड गयी और फिर वह हथेलियां रगड़ने लगे थे। 

सुबह की किरणों के साथ ही गाँव वालों की उग्र भीड़ बांध पर धावा बोल चुकी थीं।  आधे दर्जन उतेजित युवाओं ने बांध में जाल डाल दिए थे। बहुत जल्द मछलियों से भरी जाल बाहर निकलने वाली थी। जिसे देख हुजूम में शामिल बच्चे उछल- उछल पडते थे। तभी दूसरी ओर से सेठ मनिलाल अपने लठैतों के साथ आ धमका बांध भिंड पर  । लाल झंडे और हथियारों से लैस गाँव वालों को उसने अपनी खूनी आंखों से देख लगा आग बरसाने । वह भी कम तैयारी के साथ नहीं पहुंचा था। उसका घरेलू लठैत सिपहिया और उसकी पांच सेर वाली लाठी दस – दस ग्रामीणों पर बहुत भारी पडने वाली थी। लाठी का वजन गाँव वालों को भी पता था। लेकिन गाँव वालों को आज न सेठ का डर था न उसकी सिपहिया की लाठी का। सभी अपने घरों से जैसे कफ़न बांध निकले थे। आज उन्हें अपनी जान की चिंता से कहीं ज्यादा बांध और उसके पानी को लेकर थी। जिसे लडे बिना हासिल कर पाना नामुमकिन था। 

लडाई का मैदान तैयार था। एक तरफ सेठ के लठैत मोटी मोटी लाठियां लिए विकराल चेहरे के साथ सेठ के हुक्म के इंतजार में खड़े थे। विरोधियों के सर फोड़ने का उसका रक्त प्यासा मन मचल रहा था। तो दूसरी ओर गाँव वाले मर मिटने को तैयार थे। सेठ ने भीड़ की ओर देखा। जहाँ औरतें, बच्चे और बूढों की एक पूरी फौज खड़ी थी। 

सामने खदबदाती मछलियों से फंसा जाल पडा हुआ था, उछलते रहू, कतला, मिरिग और मांगूरी माछ  ! जिसे देख बच्चे किलक- किलक! उठते थे, बच्चों को यह पता नहीं था कि यहाँ क्या कुछ होने वाला है,वहीं थोड़ी दूरी पर गंभीर मुद्रा में नरेश सबसे आगे खड़ा था। उसी के आजु- बाजू ढिकरा तेली, पति महरा और दर्जनों नौजवान हाथों में टांगी, फरसा और तलवार पकड़े खड़े थे। सेठ मनिलाल के हाथ में आज पहली बार बंदूक देख बहुत लोग सोच में पड़ गए थे। दोनों ओर से तानातनी भी शुरू हो चुकी थी और तीखे शब्दों का दौर भी शुरू हो चुका था। तभी सेठ खड़े खड़े अपनी जगह से चिलाया  ” अरे नरेशवा, तिलका तो भीतरे घुस गया, अब तू बडका जबर नेता बन गया है, आज तुम्हारी लीडरी भी गां.अ.ड में घुसेड़ देंगे हम..! “

” आज सब पता चल जाएगा सेठ, कौन किसको क्या घुसेडता है। आज तुम्हारे हर जुल्म का हिसाब इसी बांध घाट पर होगा..! “

” लगता है, हमारे हाथों तुम सबका मरना लिखा है, पहलवानों देखते क्या हो, मार मार के सबको सुला दो हरामखोरों को  ! चले हैं, हमसे टक्कर लेने। लाल झण्डा गाड़कर हमें डराना चाहते हैं ..! “और सेठ ने बंदूक का मुंह भीड़ की तरफ घूमा दिया था। 

   मालिक का हुक्म पाते ही सिपहिया की लाठी चल पडी। साथी लठैत पहलवानों के कदम भी आगे बढे। जिधर लाठियां पडती एक चीख़ पुकार सी मच जाती। इसी बीच ढिकरा और पति महरा मिल कर एक लठैत को पटक लाठी तडतडा दी। लेकिन लहरी सिंह की लाठी की मार सह पाना आसान नहीं था। वह ऐसे आगे बढ़ रहा था जैसे महाभारत काल में घटोत्कच! लहरी सिंह की लाठी जिस पर पड जाती वो जमीन पर पड जाता। मुंह से चीख निकल जाती। भीड़ में भगदड मच गई।  इसके पहले कि सेठ मनिलाल नरेश को अपनी बन्दूक का निशाना बनाय उस पर फायर करे …! 

 तीसरी ओर से एक गोली चली थी  ..धांय..! और अगले ही पल सेठ का सिपहिया लठैत लहरी सिंह कटे पेड़ की तरह धड़ाम  ! से जमीन पर गिर पडा था। पांच सेर वाली लाठी उसके हाथ से छूटकर पांच हाथ दूर जा गिरी । थोड़ी देर तक लहरी सिंह छटपटाया, फिर शांत पड गया था। सबकी फटी-फटी सी आंखें उस दिशा में देखने लगीं, जिधर से गोली चली थी। तिलक महतो हाथ में बन्दूक पकड़े निर्णय की मुद्रा में खड़े थे। और उनकी बन्दूक की नाली से अब भी धुआं निकल रहा था। सेठ मनिलाल को भक मार दिया ,  आंखों में पीलिया पड़ गयी और उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर गई। उसे दिन में ही तारे नज़र आने लगे थे। 

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय