जीत
“किया ही क्या है आपने हमारे लिए? दो जून रोटी, कपडा, ये छोटासा मकान।
जिंदगी भर ऐसे ही जिएंगे हम?”
नौकरी के लिए साक्षात्कार दे-देकर थका विवेक अपनी खीज निकाल रहा था।
” क्या करूं इन बड़ी-बड़ी उपाधियों का? पढ़ाई करो..पढ़ाई करो… न खेलने दिया जी भर कभी।
कहते थे न आप, अच्छा ओहदा मिलेगा। थाट से रहोगे।”
“अच्छा होता, वक्त की नब्ज पहचानते। बड़े लोगों से हिल-मिलकर रहते।”
” तब तो बड़े स्वाभिमानी बने रहे।”
” मैं उपर की काली कमाई नहीं लेता।”
पिता के साथ साइकिल पर घूमता विवेक। नन्हें हाथों को थामते पिता से लड़ रहा था।
बड़े शान से कहते थे,
“बेटा, मेहनत का फल मीठा होता है।”
विजय बाबू अपराधी की तरह चुपचाप कड़वा घूँट पिये जा रहे थे। सच ही तो कह रहा है विवेक,
सिफारिश होती तो काम घर बैठे हो जाता। विमला ने भी कभी काली कमाई का पैसा नहीं चाहा।
दाल रोटी खाकर भी खुश थे वे।
दोनों बैठे सोच ही रहे थे कि बचपन के मित्र रमणलाल मिलने आये।
विवेक से मिलकर वे इतने प्रभावित हुए कि तुरंत अपनी फैक्ट्री में आने के लिए कह दिया। दो दिन पहले ही उनका अपने मैनेजर के साथ मनमुटाव हुआ था। इसी संदर्भ में इमानदार, होनहार, कर्मठ व्यक्ति की तलाश थी उन्हें।
” बहुत-बहुत बधाई विजय जी। हम सबकी समस्या हल हो गयी।”
विवेक की आँखे नम थी। विमला जी के आँसू बह रहे थे। इमानदारी की जीत से विजय जी गदगद थे।