अनुभव बनाम संस्कार – संघर्ष नहीं, संतुलन का सूत्र
मनुष्य के जीवन की दिशा और दशा दो महत्वपूर्ण स्तंभों पर आधारित होती है—संस्कार और अनुभव। जब हम छोटे होते हैं, तो हमारे अभिभावक, शिक्षक और परिवार हमें नैतिक मूल्यों, आदर्शों और दूसरों के प्रति सम्मान का पाठ पढ़ाते हैं। ये संस्कार हमें यह सिखाते हैं कि समाज में कैसे जीना है, कैसा व्यवहार करना है और क्या सही है। बचपन में हमें यही लगता है कि इन मूल्यों के आधार पर ही जीवन सफल और संतुलित होगा।
लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं और दुनिया की वास्तविकताओं से परिचित होते हैं, तो समझ में आता है कि हर कोई इन मूल्यों का पालन नहीं करता। जीवन की कठिनाइयाँ, प्रतियोगिता और छल-कपट से भरी परिस्थितियाँ हमें यह अनुभव कराती हैं कि केवल संस्कारों के भरोसे जीवन नहीं जिया जा सकता। तब सवाल उठता है—क्या संस्कार अब अप्रासंगिक हो गए हैं? क्या अनुभव ही सब कुछ है?
इस प्रश्न का उत्तर न तो पूर्णतः ‘हाँ’ है और न ही ‘ना’। संस्कार और अनुभव दोनों ही जीवन के पूरक हैं। संस्कार वह नींव हैं जिस पर हमारे चरित्र की इमारत खड़ी होती है, जबकि अनुभव उस इमारत को मजबूत करने वाली ईंटें हैं। यदि केवल संस्कार हों और अनुभव न हो, तो व्यक्ति आदर्शवादी होकर दुनिया में ठोकर खा सकता है। वहीं केवल अनुभव और कोई मूल्य न हो, तो व्यक्ति स्वार्थी, चालाक और असंवेदनशील बन सकता है।
उदाहरण के लिए, एक ईमानदार व्यक्ति जो बचपन से सच्चाई बोलने का संस्कार लेकर बड़ा हुआ है, जब कार्यक्षेत्र में किसी अन्याय या भ्रष्टाचार से टकराता है, तो अनुभव उसे यह सिखाता है कि अपने सिद्धांतों की रक्षा कैसे की जाए—कब चुप रहना है और कब बोलना।
इस प्रकार यह कहना अनुचित होगा कि मोरल वैल्यूज़ दुनिया के अनुभव के सामने बेवजह हैं। वास्तव में, अनुभव हमें यह समझने में मदद करता है कि अपने संस्कारों को कैसे और कब लागू किया जाए। संस्कार हमें यह सिखाते हैं कि “सही क्या है”, और अनुभव हमें यह बताता है कि “उसे सही तरीके से कैसे किया जाए।”
निष्कर्षतः, अनुभव और संस्कार कोई विरोधी ताकतें नहीं, बल्कि जीवन के दो आवश्यक आयाम हैं। जो व्यक्ति इन दोनों में संतुलन साध लेता है, वही सच्चे अर्थों में जीवन की चुनौतियों से लड़ सकता है और एक अच्छे इंसान के रूप में समाज में स्थान बना सकता है। इसलिए, हमें चाहिए कि हम अपने संस्कारों को बनाए रखें, परंतु अनुभवों से सीखते हुए उन्हें और अधिक प्रभावी बनाएँ।
इसलिए हम कह सकते हैं कि
“दुनिया अनुभव देती है, पर उस अनुभव को समझने की दृष्टि संस्कार ही देते हैं।”
— डॉ. सारिका ठाकुर “जागृति “