ज्ञानचंद की भूख
जो धोखा खा संभलने को तैयार नहीं,
दलदल से जो निकलने को तैयार नहीं,
खुद ने कभी नहीं चाहा एकसूत्र में बंधना,
पर ज्ञान बांटे जा रहे हैं,
झपट्टेमार बंदरों को खुद बुला रहे हैं,
अपनी प्रगति का गुण गा रहे हैं,
किये जा रहे फ़रेब नहीं समझ पा रहे हैं,
ऐसा ज्ञानचंद आ जाता है
यदा कदा बेवजह ज्ञान बांटने,
अंधविश्वासों,पाखंडों की
नहीं चाहते बेड़ियां काटने,
वो समझना ही नहीं चाहता कि
सामने वाला चालक है या दुष्ट है,
बस अपनी गुलामी की जिंदगी से
बिना किसी शिकायत संतुष्ट है,
वो भूल रहा है कि कोई उसके हिस्से को
हासिल करने के लिए प्रयास कर रहा है,
महामानवों के बताए सद राह को
फैलाने का प्रयास कर रहा है,
क्यों भूल रहा कि सत्तावान
सत्ता छोड़ना नहीं चाह रहा,
उनकी नीतियों से हर कोई कराह रहा,
बस धुत है मानसिक नशे की धतूरे खा,
पीढ़ी दर पीढ़ी जिये जा रहे
अपने हक़ अधिकार गंवा,
ज्ञानचंद वाली भूख छोड़ो,
मानसिक गुलामी से अब तो मुंह मोड़ो।
— राजेन्द्र लाहिरी