कविता

डिजिटल दासता की डायरी

न था मुक़दमा, न कोई फ़रमान,
किया व्हाट्सएप ने अकाउंट निष्क्रिय बेजुबान।
जैसे राजा बोले – “चुप रहो!”
और प्रजा हो जाए संतान-सा मौन।

पहले दिया था सब कुछ मुफ़्त,
अब कहता है – “बिज़नेस लेलो, वरना हटो चुपचाप!”
जैसे जियो ने किया डेटा का नशा,
अब वही चाल चली इस टेक बाबा ने भेष बदलकर।

तू कौन है जो मेरा रिश्ता छीन ले?
तू कौन है जो मेरी आज़ादी हर ले?
मैंने तो बस संदेश भेजा था,
तूने क्यों मुझे सज़ा सुना दी बिना अदालत के?

तेरा नियम, तेरी नीति,
क्यों मेरे जीवन पर बन गई है रीति?
क्या मैं नागरिक नहीं,
या सिर्फ़ तेरा उपभोक्ता, मूक प्राणी?

सरकार देखती है आँख मूंदकर,
कानून सोता है गहरी नींद में चुपचाप।
क्या जनता सिर्फ़ टैक्स देने को है बनी?
या उसका सम्मान भी कोई चीज़ है कहीं?

कभी अंग्रेज़ लूटते थे सोना,
अब ये डिजिटल साहूकार लूटते हैं डाटा का कोना।
कहते हैं – “Agree to terms”,
जैसे सहमति कोई समझौता नहीं, मजबूरी हो जीवन की।

मैं पूछती हूँ —
कहाँ है मेरा हक़?
क्यों मुझसे पूछा नहीं गया
कि मेरी निजी जानकारी कहाँ रखी जाए?

मैं पूछती हूँ —
क्यों मेरा संवाद, मेरी रोज़ी,
तेरी मनमानी की बलि चढ़े?

न्याय मांगती हूँ,
सिर्फ़ इतना कि जो बैन करे,
वो जवाब भी दे —
एक इंसान की तरह, न कि रोबोट बनकर।

यदि आज न बोले हम,
तो कल ये टेक महाबली
हमारी आत्मा को भी कोड में बदल देंगे।

— प्रियंका सौरभ

*प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh

Leave a Reply