कविता

माँ

माँ जैसा जग में किसी का नहीं होना।
माँ कहती रात होते घर लौट आना।।

बाहर हमेशा कुछ खा कर ही जाना।
बाहर की चीजें कभी भूल के न खाना।।

परेशानिओं को बिन बताये ही समझ जाना।
तुम्हें नहीं पता तुम में ही उसका जान बसना।।

बड़े होने पर भी तुम्हें बच्चा समझना।
सम्भव नहीं होता उसके प्यार को आंकना।।

संतोष होता ख़ुद न खा कर तुझे खिलाना।
चाहती नये वस्त्रों में तुझे देखना खुद फटेहाल रहना।।

उसकी दुनिया का तुम तक ही सिमट जाना।
स्वयं के लिए कुछ भी नहीं सोचना।।

उस ममता की मूरत का क़भी दिल न दुखाना।
ऐसा करना खुद को होता सजा देना।।
भारी लगता उसका सब को उसका वृद्ध होना।
नहीं चाहती बहुत कुछ बस प्यार और सम्मान पाना।।

— मंजु लता

डॉ. मंजु लता Noida

मैं इलाहाबाद में रहती हूं।मेरी शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई है। इतिहास, समाजशास्त्र,एवं शिक्षा शास्त्र में परास्नातक और शिक्षा शास्त्र में डाक्ट्रेट भी किया है।कुछ वर्षों तक डिग्री कालेजों में अध्यापन भी किया। साहित्य में रूचि हमेशा से रही है। प्रारम्भिक वर्षों में काशवाणी,पटना से कहानी बोला करती थी ।छिट फुट, यदा कदा मैगज़ीन में कहानी प्रकाशित होती रही। काफी समय गुजर गया।बीच में लेखन कार्य अवरूद्ध रहा।इन दिनों मैं विभिन्न सामाजिक- साहित्यिक समूहों से जुड़ी हूं। मनरभ एन.जी.ओ. इलाहाबाद की अध्यक्षा हूं। मालवीय रोड, जार्ज टाऊन प्रयागराज आजकल नोयडा में रहती हैं।

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