हम नहीं देख पाए, वो अब भी गा रहे थे : गांव की बाल्कनी से उड़ती स्मृतियाँ
शहरों की भीड़ में रहते हुए हम जैसे संवेदना शून्य होते चले जाते हैं। वहां सुबह मोबाइल अलार्म से होती है, यहां मुर्गे की बांग से। वहां हवा एसी की होती है, यहां आम के पेड़ की। वहां आसमान धुंध से भरा होता है, यहां पक्षियों की उड़ान से।
शहर की चमचमाती सड़कों, ऊंची इमारतों और बंद खिड़कियों के पीछे जब हम जीवन को व्यस्तताओं की कैद में जी रहे होते हैं, तब कहीं दूर गांवों की बाल्कनियों में जीवन अब भी खुले आकाश के नीचे साँस ले रहा होता है। वहां सुबहें अब भी चिड़ियों की चहचहाहट से शुरू होती हैं, दोपहरें कोयल की तान से सजी होती हैं, और रातें उल्लुओं की टेर में गूंजती हैं। यह लेख उन्हीं स्मृतियों और अनुभवों की यात्रा है — एक गांव की बाल्कनी में बैठकर महसूस की गई उस दुनिया की, जो कभी हमारी थी, लेकिन जिसे हमने शहर के शोर में कहीं खो दिया।
जब मैं हाल ही में गांव आई, तो एक शाम अपनी बाल्कनी में बैठी थी। अचानक एक चिड़िया ने ध्यान खींचा। वो जानी-पहचानी सी लगी — भूरे और सफेद रंग की, फुर्तीली और बेहद चंचल। उसे देखते ही जैसे मन के किसी कोने से आवाज़ आई — “धौर्रईया!” हाँ, यही तो कहते थे हम बच्चे जब नानी के घर आया करते थे। गर्मियों की छुट्टियों में जब पूरा कुनबा गांव में इकट्ठा होता, तो आंगन में बैठकर हम सब बच्चे इन्हीं चिड़ियों के पीछे भागते, उन्हें दाना डालते, और उनके नामों पर बहस करते। “ये गौरैया नहीं, धौर्रईया है,” मेरा चचेरा भाई अकड़कर कहता।
शहर में रहते हुए पक्षियों की पहचान ही सीमित हो जाती है। कौए, कबूतर, तोते और कभी-कभार गौरैया — बस यही दिखाई देते हैं। लेकिन यहां गांव में जैसे किसी भूली-बिसरी किताब के पन्ने फिर से खुल गए हों। मेरी बाल्कनी के सामने ही एक पेड़ है, जिस पर सुबह-सुबह मैना और बुलबुल आती हैं। दूर खेतों में मोर नाचते हैं, और उनकी कूक जैसे किसी पारंपरिक संगीत का हिस्सा हो। नीलकंठ की एक झलक भी दिखती है, और वो नीला रंग आंखों को ताजगी देता है।
टिटहरी की टिट-टिट, जलमुर्गी की फुर्ती, कोयल की कुहू-कुहू, और तितर की दौड़ — ये सब मिलकर एक ऐसी सजीव दुनिया रचते हैं जिसे शहरों में हमने कभी ठीक से जाना ही नहीं।
शहरों की भीड़ में रहते हुए हम जैसे संवेदना शून्य होते चले जाते हैं। वहां सुबह मोबाइल अलार्म से होती है, यहां मुर्गे की बांग से। वहां हवा एसी की होती है, यहां आम के पेड़ की। वहां आसमान धुंध से भरा होता है, यहां पक्षियों की उड़ान से।
रात के सन्नाटे में जब गांव में दो उल्लू नियमित रूप से आकर एक पुराने नीम के पेड़ पर बैठते हैं, तो एक अलग ही एहसास होता है। शहर में उल्लू शब्द एक अपमान या अंधविश्वास से जुड़ा होता है, लेकिन यहां वो जैसे रात के शिक्षक हों — प्रकृति का संतुलन बनाए रखने वाले मौन प्रहरी।
जब मैंने अपनी नानी से पूछा कि इस चिड़िया को धौर्रईया ही कहते थे न, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया, “हाँ बिटिया, यही तो है। अब ये शहरों में कहां दिखती है। तुम लोग ही कहां रहते हो वहां, जो देख पाओगे।”
इस बात ने भीतर तक झकझोर दिया। क्या सचमुच ये पक्षी विलुप्त हो रहे हैं, या हम ही उन जगहों से विलुप्त हो गए हैं जहां जीवन और प्रकृति एकसाथ सांस लेते हैं?
गांव की यह बाल्कनी एक खिड़की बन गई थी — केवल बाहर देखने की नहीं, बल्कि अपने भीतर झांकने की। मुझे याद आने लगीं नानी की कहानियाँ, वो दोपहरें जब पेड़ की छांव में बैठकर चिड़ियों के घोंसलों को निहारा करते थे, वो मटर के खेत जिनमें तीतर भागते थे, और वो पोखर जहां जलमुर्गियाँ अपने बच्चों के साथ तैरती थीं।
हमारी पीढ़ी ने मोबाइल की स्क्रीन पर बर्ड इमोजी तो देखी, लेकिन उनके असली रंग नहीं। हमने गूगल पर बर्ड कॉल्स सुने, लेकिन कभी खुले आसमान के नीचे बैठकर चिड़ियों की सुबह की सभा नहीं देखी।
गांव आकर यह एहसास हुआ कि हमारी भागदौड़ में हमने वो सब पीछे छोड़ दिया है, जिसे देखकर हमारी आत्मा मुस्कुराया करती थी। पक्षी केवल उड़ने वाले प्राणी नहीं हैं, वो हमारे अतीत के हिस्से हैं। हमारे लोकगीतों, कहानियों, और भावनाओं में बसे हुए साथी हैं। “कागा सब तन खाइयो, चून-चून खइयो मांस” — कबीर के इस दोहे से लेकर मीराबाई की कोयल और तुलसी की चातक तक, हर पक्षी हमारी संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा रहा है।
मुझे याद है जब पहली बार शहर आई थी, तो सोचती थी कि वहां की चकाचौंध ही जीवन का लक्ष्य है। लेकिन अब समझ में आता है कि रोशनी जरूरी है, पर हर रोशनी सूरज नहीं होती। कुछ रोशनियाँ ऐसी भी होती हैं जो आंखों को चौंधिया देती हैं, पर मन को अंधेरा कर देती हैं।
गांव की इस बाल्कनी में बैठे-बैठे एक नन्ही सी चिड़िया बार-बार आती है, कुछ पल बैठती है, फिर उड़ जाती है। उसे देखकर लगता है जैसे वो मेरी स्मृतियों में पंख लगा रही हो। हर बार जब वो उड़ती है, एक पुरानी याद हवा में तैर जाती है।
हम प्रकृति से जितना दूर होते जा रहे हैं, उतना ही खालीपन हमारे भीतर बढ़ता जा रहा है। मानसिक स्वास्थ्य से लेकर सामाजिक दूरी तक, आधुनिक जीवन के संकटों का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि हम जमीन से, पेड़ों से, पक्षियों से और अपने मूल से कटते जा रहे हैं।
यह लेख एक आग्रह है — खुद से, और आप सबसे भी। गांवों में जाइए, खुली हवा में सांस लीजिए, चिड़ियों की आवाज़ पहचानिए, बच्चों को उनके नाम सिखाइए, और महसूस कीजिए कि जीवन केवल इंसानी शोर में नहीं, चहचहाहट में भी होता है।
शहर हमें ऊँचाई देता है, पर गांव गहराई देता है। शहर विकास की दौड़ है, गांव विरासत की गोद।
और सबसे जरूरी बात — ये पक्षी विलुप्त नहीं हुए हैं। वे अब भी गा रहे हैं, बस हमने सुनना छोड़ दिया है। आइए, फिर से सुनना शुरू करें। अपनी बाल्कनी से नहीं, अपने मन की खिड़की से।
— प्रियंका सौरभ