कलम का रणघोष
जब न्याय की नींव डगमगाए,
जब सत्ता सच पर वार करे,
तब कोई तलवार नहीं उठती —
कलम उठती है, अंगार करे।
ना रक्त चाहिए, ना शस्त्रों की शान,
बस स्याही से उठता है तूफ़ान।
कभी बन जाती ललकार समय की,
कभी हो जाती हुंकार महान।
कलम न कोई सौदेबाज़ है,
ना किसी सिंहासन की दास है।
यह वही अग्निपथ चलती है,
जहाँ हर शब्द, इक प्रकाश है।
जो खबर नहीं, बगावत बन जाए,
जो लेख नहीं, मशाल बन जाए,
जो प्रश्न उठाए, तो सत्ता थर्राए,
वही पत्रकार, वही रणचंडी कहलाए।
किसी ने कहा, “बस रिपोर्टिंग है काम”,
पर हमने देखा – तू है लोकतंत्र का नाम।
जनता की आँख, विवेक की मशाल,
अनसुनी आवाज़ों का तू ही सवाल।
जब संसद मौन हो जाए,
और न्याय बिकने लगे,
तब एक पंक्ति अखबार की
तानाशाही को चीर फेंके।
तू कागज़ का योद्धा है,
पर सोच लो! कालजयी भी है।
तेरी कलम में जो धार बसी,
वह तलवारों पर भारी पड़ी।
ना भूख ने तुझे झुकाया,
ना गोली ने तुझसे सच छीन लिया।
तू चला, अकेला चला,
पर सच के साथ — युग को बदल दिया।
— डॉ. सत्यवान सौरभ