जब बचपन चाकू उठाने लगे
छोटे-छोटे हाथों में, अब गेंद नहीं, किताब नहीं,
चाकू है, गुस्सा है, आंखों में अब ख्वाब नहीं।
न शरारत की हँसी बची, न मासूमियत की बोली,
हर दिल में सुलग रही है, कोई अनकही सी होली।
क्लासरूम की बेंचों पर, अब नाम नहीं खुदते हैं,
वहाँ तो अब हथियारों के निशान तक मिलते हैं।
एक दोस्त के फोन पर बात बनी दुश्मनी की दीवार,
दोस्ती से ज़्यादा भारी पड़ने लगा अब “स्टेटस” का भार।
माँ रसोई में उलझी, पापा फ़ोन में व्यस्त,
बेटा यू-ट्यूब से सीखे, “कैसे बनें सबसे ज़्यस्त?”
शिक्षक डरते हैं अब बच्चों की आँखों से,
सवाल नहीं पूछते, बस डांटते हैं दूर खींच कर काँखों से।
जो खेल थे मैदानों में, अब हैं मोबाइल स्क्रीन पर,
मौत के गेम्स, रील के ग़ुस्से, खून के सीन हर एक बीन पर।
टीवी कहता है “बॉस बन”, वेब सीरीज़ सिखाती “डॉन हो जा”,
प्यारा बच्चा पूछे खुद से — “मैं क्यों कमज़ोर सा दिखूं भला?”
समाज है मौन, स्कूल निरीक्षक अनुपस्थित,
पड़ोसी कहते — “हमें क्या!” और मीडिया बोले — “सनसनी प्रस्तुत!”
न कोई काउंसलिंग, न कोई कान पकड़ कर प्यार,
बस हर चूक पर जूते, और नफरत के उपहार।
और फिर जब बच्चा कहता —
“कोई नहीं समझता मेरी बात!”
तब वो चुप नहीं बैठता,
बल्कि चीर देता है एक सौगंध, एक आस्था, एक आत्मा साथ।
हमने उसे अकेला छोड़ा था,
जब उसने पहली बार ग़ुस्से से दरवाज़ा पटका।
हमने कहा — “बदतमीज़ है!”
पर पूछा नहीं — “क्या हुआ बेटा, किसने तुझसे कुछ झटका?”
जब बच्चे चाकू उठाने लगें,
तो मत कहो — “ये तो बस ज़माना खराब है।”
कहो — “हमने कहाँ ग़लती की,
जो उसकी आँखों से अब प्यार न झलकता, बस सैलाब है।”
एक मुस्कान, एक कहानी, एक आलिंगन चाहिए,
उसे मोबाइल नहीं, माँ की हथेली का स्पर्श चाहिए।
समय दो, समझ दो, संवाद दो,
ताकि कल को वो चाकू नहीं,
अपने भीतर के ग़ुस्से को शब्दों में ढाल दे।
— प्रियंका सौरभ