कविता

मैं कैसे मान लूं

मेरी इच्छाओं का,
मेरे नजरिए का,
और मेरी बातों का कोई मान नहीं,
तो कैसे मान लूं,
कि उन बातों में छुपी है
मेरी रज़ा मेरी स्वीकृति,
जब तक महसूस न हो
किसी भी निर्णय से मुझे सुखद अनुभूति,
परिवार प्रेम में लड़ जाता हूं
किसी से भी बच्चों के पचड़े के कारण,
फंस जाता हूं झमेले में
जब तक न हो निवारण,
समाज के आह्वान पर
कूद जाता हूं समर में
कुछ भी सोचे समझे बिना,
जबकि रंग ही नहीं छोड़ रहा
मेरा लगाया हुआ अमिट हिना,
कोई भी कभी भी आ गया
लेने मेरी देशभक्ति का इम्तिहान,
मूल कारणों से मैं रहता अंजान,
शहीद होने के लिए प्रेरित करना
शुरू हो जाता हूं औलाद को,खुद को,
ये सोचे बिना कि
मेरे देशप्रेम की,
परिवार प्रेम की,
समाज प्रेम की,
वाकई में आवश्यकता किसको है,
या किसी चतुर पारिवारिक मुखिया को,
सामाजिक मुखिया को,
या फिर चतुर राजनीतिज्ञ को,
उलझा हुआ हूं अभी भी
मेरे मस्तिष्क में उठते प्रश्नों से कि
मैं कैसे मान लूं कोई भी बात आंख मूंद।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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