अभी भी समय है…
ये धुएँ की चादरें किसने ओढ़ लीं शहर ने?
कहीं पेड़ थे, अब वहाँ सिर्फ़ इमारतें हैं।
धरती पसीने से तर है,
और आसमान जल रहा है,
फिर भी तुम कहते हो —
“सब नार्मल है, चलता है!”
अभी भी समय है —
पेड़ बचाओ,
वरना कल
छाँव की तस्वीरें भी
सिर्फ़ म्यूज़ियम में मिलेंगी।
बिजली के पंखों से हवा नहीं आती,
हवा तो आती थी
नीम की डालियों से,
जो अब
प्लॉट बन चुकी है।
पेड़ लगाओ —
क्योंकि ऑक्सीजन सिलेंडर
हर वक़्त जेब में नहीं रहेगा।
क्योंकि पानी खरीदने की आदत
एक दिन साँसों को भी बाज़ार में खड़ा कर देगी।
बचपन अब मोबाइल में नहीं,
वो तो आम की शाखों पर था,
जहाँ झूले पड़ते थे,
अब वहाँ बिल्डरों का नामपट्ट लटकता है।
अभी भी समय है —
धरती माँ को ICU से निकालो,
पेड़ लगाओ,
वरना अगली पीढ़ी
हरियाली सिर्फ़ रंगों में देखेगी,
हक़ीक़त में नहीं।
— डॉ सत्यवान सौरभ