हरियाणा में चौपालों का वर्चस्व – लोकतंत्र की जड़ें या परंपरा की जंजीर?
हरियाणा की ग्रामीण संस्कृति में ‘चौपाल’ सिर्फ एक बैठने की जगह नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और कभी-कभी राजनीतिक निर्णयों का अनौपचारिक मंच रही है। यह जगह जहाँ बुज़ुर्ग अपनी ताश की गड्डी के साथ बैठते हैं, वहीं यह सामाजिक आचार-संहिताओं का अनकहा विधान भी तय करती है। लेकिन समय के साथ सवाल यह उठने लगा है कि क्या यह चौपालें लोकतंत्र की संवैधानिकता से ऊपर होती जा रही हैं?
हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में चौपाल महज़ एक बैठने की जगह नहीं, बल्कि एक परंपरा, एक सत्ता संरचना, और एक अनौपचारिक न्याय प्रणाली रही है। पीपल के पेड़ के नीचे या पक्के चबूतरे पर बैठकर जब गाँव के बुज़ुर्ग चर्चा करते हैं, तो उसे आम भाषा में “चौपाल” कहा जाता है। पर यह चौपाल सिर्फ बतकही तक सीमित नहीं, बल्कि सामाजिक दिशा तय करने वाली संस्था बन गई है। लेकिन आज सवाल यह है कि क्या यह वर्चस्व सकारात्मक है या फिर यह लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण समाज के रास्ते में रोड़ा बन रहा है?
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: चौपालों की भूमिका
हरियाणा में जब पंचायतें पूरी तरह विकसित नहीं हुई थीं, तब चौपालों का महत्व और अधिक था। गाँव का कोई भी मामला – ज़मीन का झगड़ा हो, विवाह संबंध तय करना हो या किसी के बहिष्कार का निर्णय – सब चौपाल में होता था। यह स्थानीय स्वशासन का प्रतीक था, जो सामूहिक संवाद के सिद्धांत पर टिका था। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला, लोकतंत्र की संस्थाएं, पंचायत चुनाव, पुलिस-प्रशासन और अदालतें सशक्त हुईं, वैसे-वैसे चौपालों की भूमिका को भी बदल जाना चाहिए था। परंतु हरियाणा में आज भी चौपालें सामाजिक फैसलों की “अनौपचारिक अदालत” बनी हुई हैं।
चौपाल बनाम संविधान: एक टकराव
भारत का संविधान हर नागरिक को समान अधिकार देता है – जाति, लिंग, धर्म या वर्ग के आधार पर भेदभाव की मनाही है। वहीं चौपालों में अक्सर फैसले जातिगत पदानुक्रम पर आधारित होते हैं। जैसे कि: “इस जाति के लड़के को उस जाति की लड़की से शादी नहीं करनी चाहिए।” “उसने पंचायत के बिना शादी की है, इसलिए उसका बहिष्कार होगा।” ये निर्णय संविधान की मूल भावना के विरुद्ध हैं। खासकर महिलाओं और दलितों को चौपाल में बोलने का अवसर कम ही मिलता है। अधिकतर मामलों में चौपालें पितृसत्ता और जातिवाद का किला बन जाती हैं।
सामाजिक नियंत्रण या सामाजिक शोषण?
चौपालें कभी-कभी ऐसे सामाजिक नियंत्रण की भूमिका निभाती हैं जो कानून से पहले कार्रवाई करता है। उदाहरण के तौर पर, जब कोई लड़की मोबाइल फोन इस्तेमाल करती है, तो चौपाल का फैसला आता है – “मोबाइल पर प्रतिबंध लगाओ।” या फिर “लव मैरिज करने वालों को गाँव से निकाल दो।” ऐसे फैसले सामाजिक शोषण की श्रेणी में आते हैं। आज भी हरियाणा में ऑनर किलिंग की घटनाएं सामने आती हैं, जिनकी जड़ें चौपाल के फैसलों में होती हैं। इस वर्चस्व का मूलभूत कारण यह है कि चौपालें अक्सर बुज़ुर्ग पुरुषों के एकाधिकार में होती हैं, जहाँ युवा, महिलाएं या सामाजिक रूप से हाशिए पर खड़े लोग आवाज़ नहीं उठा सकते।
चौपालों की सकारात्मक भूमिका भी है?
यह कहना गलत होगा कि चौपालें केवल नकारात्मक भूमिका निभाती हैं। कुछ क्षेत्रों में चौपालें आपसी विवाद सुलझाने, सामाजिक समरसता बनाए रखने, और सामूहिक फैसले लेने का लोकतांत्रिक रूप भी हैं। जैसे: जल संरक्षण, नशामुक्ति अभियान, या शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सामूहिक प्रयास। विवाहों में फिजूलखर्ची रोकने के लिए नियम बनाना। लेकिन यह भूमिका तब तक रचनात्मक है, जब तक वह सबकी भागीदारी सुनिश्चित करे और संविधान के अनुरूप हो।
राजनीतिक उपयोग और दुरुपयोग
हरियाणा की राजनीति में चौपालों का बड़ा उपयोग हुआ है। नेता चौपालों में जाकर जनसंपर्क करते हैं, लेकिन साथ ही जातिगत गोलबंदी और सामाजिक ध्रुवीकरण का ज़रिया भी इन्हें बनाते हैं। पंचायत चुनावों में या विधानसभा चुनावों में “चौधरी जी का फैसला सब पर भारी” जैसी धारणाएं लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नुकसान पहुँचाती हैं।
महिलाएं और चौपाल: प्रवेश वर्जित?
हरियाणा की चौपालों में महिलाओं की सहभागिता आज भी अत्यंत सीमित है। भले ही ग्राम पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण मिला है, लेकिन जब वही महिला सरपंच चौपाल में अपनी बात रखने जाती है, तो उसे चुप करा दिया जाता है। यह दोहरा मापदंड है – कागज़ी सशक्तिकरण और ज़मीनी उपेक्षा
महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को चौपाल संस्कृति से सीधा विरोध मिला है। इसीलिए चौपालों का वर्चस्व महिलाओं की भागीदारी के लिए बाधक बनता जा रहा है।
नई पीढ़ी की सोच और चौपालों से दूरी
आज की युवा पीढ़ी, जो इंटरनेट, सोशल मीडिया और शहरी जीवन से प्रभावित है, चौपाल संस्कृति से खुद को काटती जा रही है। उन्हें यह प्रणाली पुरानी और पक्षपाती लगती है। युवा सवाल पूछते हैं: “मैं किससे प्यार करूं, इसका फैसला कोई बुज़ुर्ग कैसे करेगा?” “मेरे करियर का रास्ता मैं तय करूंगा, चौपाल नहीं।” इस पीढ़ी की लोकतांत्रिक चेतना चौपालों के वर्चस्व को चुनौती दे रही है। यही लोकतंत्र की दिशा है, जिसे गाँवों में सशक्त बनाना ज़रूरी है।
क्या चौपालों का कोई नया स्वरूप हो सकता है?
समाधान यह नहीं है कि चौपालों को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया जाए, बल्कि ज़रूरत है उन्हें पुनर्परिभाषित करने की। उदाहरणस्वरूप: चौपालों में महिलाओं, दलितों, युवाओं को बराबर बोलने का अधिकार मिले। फैसले नियम और कानून की कसौटी पर कसे जाएं। चौपालों का उपयोग सामाजिक अभियानों, ग्रामीण विकास और शिक्षा के प्रचार में हो। अगर चौपालें लोकतंत्र का विस्तार बनें, तो वे आज भी प्रासंगिक रह सकती हैं।
चौपाल: परंपरा या पितृसत्ता का प्रतीक?
चौपालों की मूल अवधारणा आपसी संवाद, परामर्श और विवाद निपटारे की रही है। परंतु अब यह जगह कई बार न्याय की बजाय सामाजिक दमन और जातीय वर्चस्व का अड्डा बनती दिखती है। हरियाणा के गांवों में अधिकतर चौपालों पर सिर्फ पुरुषों का वर्चस्व होता है। महिलाएं वहाँ न तो बोल सकती हैं, न ही बैठ सकती हैं। यह असमानता सिर्फ लिंग आधारित नहीं है, जातिगत और आर्थिक वर्गों के हिसाब से भी है। पिछड़े वर्गों, दलितों और अल्पसंख्यकों की बातों को अनसुना कर देना इन चौपालों की पुरानी रवायतों में शामिल हो चुका है।
आंकड़ों की सच्चाई:
ऑनर किलिंग के मामलों में हरियाणा शीर्ष पर है। 2021 में देश में दर्ज 25 मामलों में से 17 हरियाणा से थे। इन अधिकतर मामलों में खाप या चौपाल की भूमिका रही। रिपोर्ट के अनुसार, 60% ग्रामीण विवाद पहले चौपाल में ही सुलझाए जाते हैं, जिनमें से 80% फैसलों में महिलाएं शामिल नहीं होतीं। हरियाणा राज्य महिला आयोग (2020) की एक रिपोर्ट बताती है कि 72% ग्रामीण महिलाओं को चौपाल की रूढ़िवादी व्यवस्था के कारण अपने अधिकारों से वंचित होना पड़ता है।
करनाल ज़िले का ‘बल्ला गाँव’, हिसार ज़िले का नलवा गाँव
वर्ष 2016 में करनाल के बल्ला गाँव की चौपाल ने एक प्रेमी युगल को ‘एक ही गोत्र’ का हवाला देते हुए गाँव से निकालने का निर्णय लिया। महिला को परिवार से अलग कर दिया गया और लड़के को जान से मारने की धमकी दी गई। जब यह मामला कोर्ट में गया, तो अदालत ने इसे संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन माना। लेकिन तब तक समाज ने अपनी ‘सज़ा’ सुना दी थी। यह केस यह दर्शाता है कि चौपालें आज भी अपनी परंपरा की आड़ में कानून की अनदेखी कर सकती हैं। 2019 में हिसार के नलवा गाँव की चौपाल में एक दलित परिवार को केवल इसलिए सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा क्योंकि उनकी बेटी ने एक सवर्ण युवक से विवाह कर लिया था। पंचायत ने न सिर्फ पूरे परिवार को चौपाल पर आने से रोका, बल्कि गाँव के कुएँ से पानी भरने और राशन की दुकानों से खरीददारी करने पर भी रोक लगा दी।
सकारात्मक मिसाल: बीबीपुर गाँव, भिवानी, रेवाड़ी ज़िले का ‘ढोसी गाँव’
लेकिन हर चौपाल कट्टरता का प्रतीक नहीं है। भिवानी के बीबीपुर गाँव ने चौपाल की परिभाषा को बदलकर दिखाया। वहाँ के सरपंच सुनिल जगलान ने चौपाल को महिलाओं की आवाज़ बनाने का मंच बनाया। सेल्फी विद डॉटर’ अभियान यहीं से शुरू हुआ। चौपाल में महिला मंच स्थापित किया गया, जहाँ महिलाएं भी समान अधिकार से भाग लेती हैं। नशा मुक्ति, बाल विवाह, शिक्षा और शौचालय जैसे मुद्दों पर खुली बहस हुई और निर्णय लिए गए। बीबीपुर की यह चौपाल बताती है कि जब समाज चाहे, तो परंपरा को आधुनिक मूल्यों के साथ जोड़ा जा सकता है। हरियाणा पंचायत विकास रिपोर्ट (2021) के अनुसार, राज्य के 78% गाँवों में चौपालों को किसी भी कानूनी ढांचे के अंतर्गत संचालित नहीं किया जाता, जिससे वे अक्सर संविधान के दायरे से बाहर होकर निर्णय लेती हैं। गाँव की चौपाल में 2022 में पहली बार युवाओं की मांग पर डिजिटल चौपाल की शुरुआत की गई। इसमें गाँव की समस्याओं को वीडियो कांफ्रेंस के ज़रिए ब्लॉक कार्यालय से जोड़ा गया और महिलाओं को भी समान रूप से भागीदारी मिली। इसका सीधा प्रभाव यह हुआ कि गाँव में शौचालय निर्माण, छात्रवृत्ति वितरण और मनरेगा की मजदूरी जैसे मुद्दों पर त्वरित निर्णय और समाधान हुए।
मीडिया में चौपालों की आलोचना
“हरियाणा में खाप पंचायतें अब भी सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करती हैं, संवैधानिक अधिकारों को दरकिनार कर।” “रोहतक के एक गाँव में जींस पहनने पर लड़की को सज़ा सुनाई गई – चौपाल ने फ़ैसला सुनाया, महिलाएं निष्कासित थीं।” हरियाणा की चौपालें जहाँ एक ओर संवाद और समुदाय का प्रतीक हैं, वहीं दूसरी ओर वे लोकतंत्र और समानता के रास्ते में बाधा भी बन चुकी हैं। इन चौपालों को अब आत्मावलोकन की ज़रूरत है। उन्हें चाहिए कि वे परंपरा को ढालें, लेकिन समावेशिता, लिंग समानता और संवैधानिक मूल्यों के साथ। बीबीपुर की चौपाल एक आदर्श है, जबकि बल्ला की चौपाल एक चेतावनी। अब यह हरियाणा के गाँवों पर है कि वे किस रास्ते को चुनते हैं—लोकतंत्र की दिशा या परंपरा की परछाईं?
वर्चस्व नहीं, सहभागिता चाहिए
हरियाणा की चौपालें समाज का आईना हैं – लेकिन जब आईना ही धुंधला हो जाए, तो तस्वीर भी बिगड़ जाती है। चौपालों का वर्चस्व अगर समानता, न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों को दबाता है, तो उसे चुनौती देना ज़रूरी है। लेकिन अगर इसे समावेशी, संवेदनशील और लोकतांत्रिक बनाया जाए, तो यह ग्रामीण भारत की सबसे मजबूत संस्था बन सकती है। हमें यह तय करना होगा कि चौपालें संवाद का मंच रहेंगी या सत्ता का सिंहासन? जब तक चौपालें सबकी आवाज़ नहीं बनतीं, तब तक उनका वर्चस्व लोकतंत्र के लिए खतरा ही रहेगा।
— डॉ. सत्यवान सौरभ