ग़ज़ल
अब अमीरों के भी घर में खुदकुशी होने लगी,
इस मौहब्बत की कमी से हर कमी होने लगी।
फूल नक़ली भी यहां बिकते हैं ऊंचे दाम पर,
अस्ल फूलों की कि अब इतनी कमी होने लगी।
इस ज़ईफ़ी में मेरे अहबाब घटते जाते हैं,
आज इसकी कल किसी की रुख़सती होने लगी।
वो सुदामा अब कहां है और वो कृशना कहां,
अब इसी धरती पे नक़ली दोस्ती होने लगी ।
मेरे इस उजड़े मकां में एक जुगनू था फ़क़त,
इसके जाने से भी कितनी तीरगी होने लगी।
जब अमीरों के मकां पर मुझको जाना पड़ गया,
और भी ग़मनाक मेरी मुफ़लिसी होने लगी।
जाम से और भीड़ से गाड़ी में दम घुटने लगा,
जब थके हारे की घर को वापसी होने लगी।
— अरुण शर्मा साहिबाबादी