ग़ज़ल
शहर को किस की नज़र ने खा लिया।
पहले पन्त्रे की ख़बर ने खा लिया।
छांव किस कुएं में जाकर गिर गई,
धूप के तीखे असर ने खा लिया।
पाप जब हद़ से ज़्यादा बढ़ गया,
सांप को खुद के ज़हर ने खा लिया।
दुश्मनों से कौन फिर शिकवा करे,
दोस्ती को ही कदर ने खा लिया।
दीप कतबे पर जलाए थे मगर,
रोशनी को ही क़ब्र ने खा लिया।
रात रोती ही रही इंतज़ार में,
चांद सारा दोपहर ने खा लिया।
ग़ज़ल में लय की अब ज़रूरत नहीं,
वज़न शब्दों का बहर ने खा लिया।
खेतों में ऊंचे घरों की दास्तां,
गांव सारा ही शहर ने खा लिया।
ख़ून के छींटे पड़े हैं गगन पर,
चमकता सूरज क़हर ने खा लिया।
कौन अपनों का करे इतबार फिर,
जब किनारा ही नहर ने खा लिया।
बालमा इन हसरतों का क़ाफिला,
ज़ुल्फ की बहती लहर ने खा लिया।
— बलविंदर बालम