मां हमेशा ही सुहागिन
उसने अपने देवर के विवाह की उत्साह पूर्वक तैयारियां कर अपने उदास जीवन में खुशियाँ भरने की कोशिश की थी. अपने देवर को वह बेटे की तरह प्यार करती थी. अपनी सूनी मांग का दुःख एक गठरी में बांधकर उसने एक ओर रख दिया था. ख़ुशी ख़ुशी सभी समारोहों का आयोजन वह उमंग से करवाती रही. बारात भी धूम धाम से चढवा कर बहू लेकर घर आई.
देवरानी को घर की दहलीज पर उतारने की रस्म करवाने के लिए वह चाव से आरती की थाली ले द्वार की ओर जाने लगी. तभी रिश्ते की एक नन्द की आवाज उसके कान में गर्म शीशा उंडेल गई,’’ नई बहू को दहलीज पर उतारने के लिए केवल सुहागिनों को ही जाना चाहिए. ’’
उसके चाव से बढते क़दमों को, यह सुनते ही लकवा मार गया. यह शब्द उसकी सास के कानों में भी पड़े,जो पास ही खड़ी थी. उसकी सास ने तुरंत अपने पर्स में से एक बिंदी निकाली और उसके माथे पर लगाकर बोली,’’ बहू,सचिन को तुमने देवर की तरह नहीं, मां की तरह प्यार किया है. मां सधवा या विधवा नहीं होती, केवल – मां होती है ! बहू को घर की दहलीज पर उतारने की रस्म तुम ही पूरा करोगी ! ’’
— विष्णु सक्सेना