क्या वाकई औरत का कोई घर नही होता?
लोग”कहते हैं कि औरत का कोई घर नहीं होता, मगर सच तो ये है कि औरत के बिना कोई घर, घर नहीं होता।”
समाज में प्रचलित यह धारणा है कि लड़की का मायका उसका स्थायी घर नहीं होता, क्योंकि शादी के बाद उसे ससुराल जाना होता है। वहीं, ससुराल में भी अक्सर उसे ‘परायी’ या ‘बाहरी’ मान लिया जाता है। इस तरह, सामाजिक दृष्टि से औरत को स्थायी रूप से किसी एक घर का अधिकार नहीं मिलता।
इसका मुख्य कारण ये है कि,
शादी के बाद मायके से विदाई
ससुराल में ‘नई बहू’ या ‘बाहरी’ का टैग
पैतृक संपत्ति और अधिकारों में भेदभाव मगर इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि औरत के बिना कोई घर, घर नहीं होत
यह कथन उस पहली धारणा का खंडन करता है। वास्तव में, घर की आत्मा, उसकी गर्माहट, प्यार, संस्कार और खुशियों की असली वजह औरत ही होती है। चाहे वह माँ हो, बहन हो, पत्नी हो या बेटी,घर की हर धड़कन में उसकी भूमिका अहम है।
औरत की विभिन्न भूमिकाएं,
माँ, घर की नींव, बच्चों की पहली गुरु, परिवार की देखभाल करने वाली।
पत्नी, पति का संबल, घर की व्यवस्था, संस्कारों की वाहक।
बहन/बेटी,घर में खुशियाँ, ऊर्जा और ताजगी लाने वाली। घर की जीनत,
घर का असली अर्थ,
सिर्फ ईंट-पत्थर से बना ढांचा नहीं, बल्कि जहाँ अपनापन, ममता, देखभाल और स्नेह हो—वह घर कहलाता है।
औरत के बिना घर में न तो वह अपनापन रहता है, न ही भावनाओं की गर्माहट।
सामाजिक संदेश,
सम्मान,औरत को घर की ‘लक्ष्मी’ या ‘आत्मा’ मानना चाहिए। या माना जाता है।
समानता,उसे हर घर में बराबरी का हक और सम्मान मिलना चाहिए।
पहचान,औरत के बिना कोई भी घर अधूरा है, चाहे वह किसी भी रूप में हो।
औरत का कोई घर नहीं होता—यह सिर्फ एक सामाजिक सोच है। जो आज के समय में सही नहीं कही जा सकती हैं।
औरत के बिना कोई घर, घर नहीं होता—यह जीवन का सच्चा अनुभव है।
घर की असली पहचान औरत से ही है। उसकी उपस्थिति ही घर को ‘घर’ बनाती है।
इसलिए, हर औरत को उसका सम्मान, प्यार और अधिकार मिलना चाहिए—तभी घर, घर कहलाएगा।
— डॉ. मुश्ताक अहमद शाह