प्रतीक्षा
हाल यूँ ही लगता है बेहाल,
आँखें बोझिल हुए वो ओझिल।
रिश्ते सारे जो लगते थे कभी हमारे,
ज़िन्दगी के हर पड़ाव देखा बिखराव।
कौन अपना कौन बन गया सपना,
हुए जुदा या गैर जो बन आए खुदा।
जिनको नाज़ो से था पाला,
अपने हिस्से का दिया निवाला।
बन कर काबिल गए वो विदेश,
छोड़ा अपनों को और ये देश।
हर प्रभात जगाती थी आस,
आएंगे हमसे मिलने वो आज।
हो गए नैन आज जब ये बंद,
लो खत्म हो गया अंतर्मन का द्वंद्व।
प्रतीक्षा की सीमा से आगे बढ़ गया,
जीवन का अंतिम हर श्वास।
उस द्वार अब न कोई करेगा इंतज़ार,
अब तो ख़त्म हुआ उनका संसार।
कैसी है ये प्रतीक्षा जो रहती ह्रदय,
न मिटती देती पीड़ादायक विरह।
— कामनी गुप्ता