खत-किताबत के दिन,अहसास और अपनापन
खत-किताबत यानी चिट्ठी-पत्री या पत्र-व्यवहार, वो दौर था जब लोग अपने जज़्बात, हाल-चाल और रिश्तों की गर्माहट चिट्ठियों में उकेरते थे। हर शब्द में अपनापन, हर पंक्ति में इंतज़ार और हर लिफाफे में कोई खास अहसास छुपा होता था। चिट्ठियों के आने का इंतजार, उन्हें बार-बार पढ़ना, और उनका जवाब लिखना—ये सब जीवन का हिस्सा थे।
आज भी डाकघर में चिट्ठियों का सिलसिला पूरी तरह थमा नहीं है। लोग अपने प्रियजनों के लिए भावनाओं से भरे पत्र भेजते हैं—माँ की ममता, प्रेमियों की तड़प, या दूर बैठे बेटे-बेटियों की यादें। एक पोस्टवुमन के अनुभव से पता चलता है कि चिट्ठी मिलने की खुशी और उत्सुकता आज भी लोगों के चेहरे पर मुस्कान बिखेर देती है।
चिट्ठियों में सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि पूरे अहसास, रिश्तों की गर्मी और एक अनकहा संवाद बसता था। आज भले ही डिजिटल युग आ गया हो, लेकिन खत-किताबत के उन दिनों की मिठास और अपनापन अब भी दिलों में बसा है।
ख़तों की ख़ुशबू – एक नज़्म
वो काग़ज़ की सिलवटों में,
छुपे जज़्बातों के मौसम,
हर हरफ़ में बसी थी,
किसी की याद की ख़ुशबू।
लिफ़ाफ़े की मुहर तोड़ते ही,
दिल की धड़कनें तेज़ हो जाती थीं,
हर सतर में एक सवाल,
हर लफ़्ज़ में इंतज़ार।
माँ की दुआओं का असर,
दोस्त की हँसी की झलक,
महबूब के अल्फ़ाज़ों में,
छुपा था प्यार का रंग।
आज भी जब कोई ख़त मिलता है,
पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं,
डिजिटल दौर की भीड़ में,
काग़ज़ की वो अपनाईयत कहीं खो सी गई है।
फिर भी दिल चाहता है,
वो सिलवटें, वो स्याही,
फिर से कोई ख़त आए,
और लिफ़ाफ़े में छुपा,
वो एहसास लौट आए।
किसी शायर का अंदाज़ देखिए,
कि,बहुत ज़ब्त किया ख़त लेकर मैंने लेकिन।
थर थराते हुए हाथों ने हाय भरम खोल दिया।
इन अलफ़ाज़ों में एक कहानी नजर आती है।
— डॉ. मुश्ताक अहमद शाह