ग़ज़ल
फिर उठकर ताज़ादम होने की ख़ातिर
जाता हूँ बिस्तर पर सोने की ख़ातिर
सबके साथ नहीं हँसना है सोच लिया
फँसना पड़ जाता है रोने की ख़ातिर
रोते-रोते याद नहीं रहता है ये
पाना होता ही है खोने की ख़ातिर
अनुभव की फ़स्ल पकी है जो यादें हैं
काट इकट्ठा करते ढोने की ख़ातिर
आगे क्या होगा ख़्वाबों के खेतों का
सच्चे बीज न मिलते बोने की ख़ातिर
उनसे ही आनन भी मैंने साफ़ किया
आँसू जो थे दामन धोने की ख़ातिर
लम्बी-लम्बी जगहें छेके बैठे सब
लड़ना पड़ता मुझको कोने की ख़ातिर
— केशव शरण