राजनीति

हत्या के एक दोष पर दो उम्रकैद: न्याय की सीमा या उसका उल्लंघन?

भारतीय न्याय व्यवस्था के दरवाज़े पर एक संवेदनशील और जटिल प्रश्न खड़ा है—क्या किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार उम्रकैद की सज़ा दी जा सकती है? यह प्रश्न अब सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है और देशभर में न्याय, संविधान और दंड व्यवस्था को लेकर नई बहस का विषय बन गया है। हरियाणा के ठा सुकेश नामक व्यक्ति को अपनी पत्नी की हत्या के मामले में दो अलग-अलग धाराओं में उम्रकैद की सज़ा दी गई थी। दोनों सजाएँ लगातार चलने के आदेश के साथ दी गईं, यानी पहले एक उम्रकैद पूरी होगी, फिर दूसरी शुरू होगी। यह वही स्थिति है जैसे किसी व्यक्ति को दो जीवनकाल की सज़ा दे दी गई हो।

भारत का संविधान यह स्पष्ट कहता है कि किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा चलाकर सज़ा नहीं दी जा सकती। अनुच्छेद 20(2) में उल्लेखित ‘डबल जियोपर्डी’ का सिद्धांत इसी विचार पर आधारित है कि न्यायिक प्रक्रिया केवल दंड देने के लिए नहीं, बल्कि न्याय को संतुलन और विवेक के साथ लागू करने के लिए है। लेकिन यदि किसी एक घटना से जुड़े दो अलग-अलग अपराधों के तहत मुकदमा चले और दोनों में दोष सिद्ध हो, तो क्या दो बार सज़ा दी जा सकती है? यही इस पूरे मामले का केंद्रीय प्रश्न है।

ठा सुकेश पर आरोप है कि उसने अपनी पत्नी की हत्या की। इस घटना से उत्पन्न दो मुकदमे—एक भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और दूसरा संभवतः धारा 498A (घरेलू हिंसा) या 304B (दहेज मृत्यु)—दायर किए गए। दोनों मामलों में सजा उम्रकैद की हुई और उन्हें लगातार चलाने का निर्देश दिया गया। यहाँ कानूनी पेचीदगी यह है कि अगर हत्या और घरेलू हिंसा की घटनाएँ एक ही समय और परिस्थिति की उपज हैं, तो क्या उन्हें दो अलग-अलग अपराध माना जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट के सामने यह प्रश्न केवल तकनीकी नहीं, बल्कि नैतिक और संवैधानिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। न्याय का उद्देश्य किसी को दोहरा दंड देना नहीं है, बल्कि उस अपराध की प्रकृति और उसकी सामाजिक क्षति के अनुरूप न्यायसंगत सज़ा देना है। लगातार दो उम्रकैद देना ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी व्यक्ति को उसकी आयु से अधिक सजा दी जा रही हो—एक प्रकार का अतिन्याय, जो अन्याय में बदल सकता है।

पूर्व में भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों पर विचार किया है। मुथुरामलिंगम बनाम तमिलनाडु राज्य (2016) के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि एक से अधिक उम्रकैद की सजाएँ साथ-साथ चलनी चाहिए, जब तक कि किसी विशेष परिस्थिति में अलग-अलग चलाना अनिवार्य न हो। वहीं, स्वामी श्रद्धानंद मामले में न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया था कि यदि फाँसी नहीं दी जाती, तो सज़ा की अवधि को बढ़ाया जा सकता है, लेकिन यह फैसला भी न्यायिक विवेक और अपवाद के आधार पर लिया गया था, न कि नियम के तहत।

यदि ठा सुकेश को एक ही अपराध में दो बार उम्रकैद दी जाती है, तो यह एक खतरनाक परंपरा की नींव हो सकती है। यह न्यायिक प्रणाली के उस मूल विचार से भटकाव होगा, जहाँ दंड प्रणाली सुधारात्मक होनी चाहिए, न कि दमनकारी। साथ ही, यह भी देखना होगा कि क्या ऐसे फैसले संविधान के मूल ढांचे और व्यक्तिगत अधिकारों के अनुरूप हैं या नहीं।

भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में जहाँ जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को सर्वोच्च स्थान दिया गया है, वहाँ इस प्रकार की सज़ाएँ मानवीय दृष्टिकोण से भी असहज प्रतीत होती हैं। कोई भी सज़ा, चाहे वह कितनी भी सख्त क्यों न हो, तब तक न्यायसंगत नहीं कही जा सकती जब तक उसमें विवेक, मानवीयता और संविधान की भावना न हो।

इस निर्णय का असर केवल एक व्यक्ति पर नहीं पड़ेगा, बल्कि यह भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और संविधान की व्याख्या को भी नए सिरे से परिभाषित करेगा। यदि सुप्रीम कोर्ट इस फैसले को वैध ठहराता है, तो भविष्य में अनेक मामलों में दोहरी उम्रकैद देने की संभावनाएँ खुल सकती हैं। यदि नहीं, तो यह न्यायिक विवेक का एक ऐतिहासिक उदाहरण बनेगा, जो यह स्थापित करेगा कि सज़ा का उद्देश्य दमन नहीं, दिशा देना है।

हर न्यायिक निर्णय एक उदाहरण होता है। यह मामला हमारे देश की न्याय प्रणाली के उस चौराहे पर खड़ा है, जहाँ से आगे का रास्ता तय करेगा कि हम किस प्रकार के समाज की ओर बढ़ना चाहते हैं—एक ऐसा समाज जहाँ न्याय समानुपातिक हो, या एक ऐसा जहाँ सज़ा के नाम पर अतिशयता को न्याय कहा जाए।

यह केवल ठा सुकेश या उसकी पत्नी का मामला नहीं है। यह उस विचारधारा का मामला है, जो यह तय करती है कि अपराध के लिए सज़ा कैसी होनी चाहिए—दुहराव में लिपटी हुई, या विवेक और मानवता से सजी हुई?

अब यह सुप्रीम कोर्ट के विवेक और संविधान की व्याख्या पर निर्भर करेगा कि वह इस अत्यंत जटिल सवाल का उत्तर कैसे देता है। न्याय केवल कानून का अनुपालन नहीं होता, वह समाज की चेतना का प्रतिबिंब भी होना चाहिए।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

डॉ. सत्यवान सौरभ

✍ सत्यवान सौरभ, जन्म वर्ष- 1989 सम्प्रति: वेटरनरी इंस्पेक्टर, हरियाणा सरकार ईमेल: satywanverma333@gmail.com सम्पर्क: परी वाटिका, कौशल्या भवन , बड़वा (सिवानी) भिवानी, हरियाणा – 127045 मोबाइल :9466526148,01255281381 *अंग्रेजी एवं हिंदी दोनों भाषाओँ में समान्तर लेखन....जन्म वर्ष- 1989 प्रकाशित पुस्तकें: यादें 2005 काव्य संग्रह ( मात्र 16 साल की उम्र में कक्षा 11th में पढ़ते हुए लिखा ), तितली है खामोश दोहा संग्रह प्रकाशनाधीन प्रकाशन- देश-विदेश की एक हज़ार से ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन ! प्रसारण: आकाशवाणी हिसार, रोहतक एवं कुरुक्षेत्र से , दूरदर्शन हिसार, चंडीगढ़ एवं जनता टीवी हरियाणा से समय-समय पर संपादन: प्रयास पाक्षिक सम्मान/ अवार्ड: 1 सर्वश्रेष्ठ निबंध लेखन पुरस्कार हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी 2004 2 हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड काव्य प्रतियोगिता प्रोत्साहन पुरस्कार 2005 3 अखिल भारतीय प्रजापति सभा पुरस्कार नागौर राजस्थान 2006 4 प्रेरणा पुरस्कार हिसार हरियाणा 2006 5 साहित्य साधक इलाहाबाद उत्तर प्रदेश 2007 6 राष्ट्र भाषा रत्न कप्तानगंज उत्तरप्रदेश 2008 7 अखिल भारतीय साहित्य परिषद पुरस्कार भिवानी हरियाणा 2015 8 आईपीएस मनुमुक्त मानव पुरस्कार 2019 9 इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ रिसर्च एंड रिव्यु में शोध आलेख प्रकाशित, डॉ कुसुम जैन ने सौरभ के लिखे ग्राम्य संस्कृति के आलेखों को बनाया आधार 2020 10 पिछले 20 सालों से सामाजिक कार्यों और जागरूकता से जुडी कई संस्थाओं और संगठनों में अलग-अलग पदों पर सेवा रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, दिल्ली यूनिवर्सिटी, कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 9466526148 (वार्ता) (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) 333,Pari Vatika, Kaushalya Bhawan, Barwa, Hisar-Bhiwani (Haryana)-127045 Contact- 9466526148, 01255281381 facebook - https://www.facebook.com/saty.verma333 twitter- https://twitter.com/SatyawanSaurabh

One thought on “हत्या के एक दोष पर दो उम्रकैद: न्याय की सीमा या उसका उल्लंघन?

  • डॉ. विजय कुमार सिंघल

    आपकी आपत्ति गलत है. एक ही वाद में अलग अलग अपराधों के लिए अलग अलग सजाएँ दी जाती हैं और सभी एक साथ या अलग अलग चल सकती हैं. 

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