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औरत: उम्मीदों से सिसकियों तक का सफ़र

औरत:  उम्मीदों से सिसकियों तक का सफ़र 

                          लेख: (महेश कुमार माटा)

कोर्ट का कामकाज खत्म होते ही,  जैसे ही ५ बजे, सुधा अपना बैग उठाकर तीव्र कदमों से सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी। मैं सेंट्रल हॉल से जैसे ही बाहर आया सुधा को जल्दी में देखकर बोला, “अरे मैडम ध्यान से, बहुत जल्दी में हो सब ठीक तो है”।

“अरे सर बस घर जाने की जल्दी है ६ बजते ही हसबैंड का फ़ोन आना शुरू हो जाता है कि कहाँ रह गई है तुझे घर की चिंता नहीं जल्दी निकल लिया कर ऑफिस से, बेटी को घर छोड़ूँगा तभी तो क्लास में जाऊँगा”, इतना कहकर सुधा तेज़ी से मेट्रो स्टेशन की तरफ़ प्रस्थान कर गई।

हमारे समाज में जितनी भी कामकाजी महिलायें हैं, केवल सुधा ही नहीं अपितु सुधा की तरह लाखो महिलाओं की स्थिति लगभग ऐसी ही है। ऑफिस के बाद घर परिवार का तनाव बच्चों की चिंता सब कुछ औरतों को ही देखना पड़ता है। ऊपर से घर मे आने जाने वालों की खातिरदारी, लेन देन आवभगत और बड़ों की सेवा सत्कार सब उसी महिला को देखना होता है जो न केवल परिवार के असह्य बोझ तले दबी रहती है बल्कि अपनी “जॉब” को लेकर भी इतनी असुरक्षित रहती है कि उसे पूरी जिंदगी यही साबित करने में बीत जाती है कि वो जॉब करके कोई एहसान नहीं कर रही है बल्कि उसे अपने परिवार का एहसान मानना पड़ता है कि वो उसे जॉब करने दे रहे हैं।

लाजपत नगर की रहने वाली सृष्टि, इसका समाचार काफ़ी वायरल हुआ था। घर वालों के शोषण से परेशान होकर वो मानसिक रोगी हो चुकी थी। जिसकी क़ीमत उसे अपनी जॉब गँवाकर चुकानी पड़ी। कॉर्पोटेट सेक्टर में काम करने वाली सृष्टि ऑफिस में बॉस की सख्ती से सामान्यतः परेशान ही रहती थी। लेकिन उसकी परेशानी यहीं ख़त्म नहीं होती थी। घर जाने के बाद पति की गालियाँ सास की शिकायतें उसका नया अध्याय प्रारम्भ करते दे। सही मायने में साक्षी के लिए घर और ऑफिस दोनों ही शोषण का स्थल बन चुके थे। लिहाजा अपने जीवन की जटिलताओं से प्रेषण सृष्टि का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और उसे उसकी बिगड़ी मानसिक स्थिति के कारण जॉब से हाथ धोना पड़ा। उसके बाद एक दिन उसने आत्महत्या कर ली।

आज देश की १४० करोड़ की जनसंख्या में तकरीबन ७ करोड़ महिलायें किसी ना किसी व्यवसाय अथवा नौकरी में स्न्लग्न हैं। समानता के इस दौर में औरत का अपने पाँव पर खड़ा होना विकासशील देश के लिए अत्यंत गर्व की बात है। सामाजिक समानता का यह महत्वपूर्ण पहलू है। ध्यान देने की बात यह है कि आज सभी को विवाह के लिए पत्नी पढ़ी लिखी और अपने पांव पर खड़ी हुई चाहिए। विवाह के बाद पति पत्नी का मिल कर उत्तरदायित्व उठाना आज का महत्वपूर्ण विचार है। लेकिन कामकाजी महिला से विवाह के बाद क्या वास्तव में औरत संप्रभु रह पाती है? क्या नौकरी और परिवार में समाजस्य बिठाने के दौरान उसका उसी के हमसफ़र द्वारा साथ दिया जाता है।

अभी कुछ दिन पहले मैं तीस हज़ारी की ही एक अदालत में किसी कार्यवश गया था जहाँ किसी पारिवारिक मामले में पति और पत्नी में बहस चल रही थी। उस बहस में मेरे कानों में एक वाक्य गूँज रहा था। उक्त महिला का अपने पति और ससुराल वालों पर यह आरोप था कि ऑफिस से घर पहुंचते ही उसके पति और सास को उसके हाथ की ही सब्ज़ी और रोटी चाहिए होती थी। बच्चा भी उसी महिला को संभालना होता था। बर्तन कपड़े सब उसी औरत को करने होते दे। जब उसे टाइफाइड हुआ तो उस स्थिति में भी घर का सारा काम उस से करवाया गया जिसके कारण वो मैक्स हॉस्पिटल में १५ दिन तक एडमिट रही। और उसका एक गंभीर आरोप यह भी था कि उसका पति उसके साथ अनेचुरल सेक्स भी करता था जिसके कारण वो मानसिक प्रताड़ना का शिकार हो रही थी।

जरा सोचिए, यह उन महिलाओं की कहानी है जो कि किसी ना किसी रूप में आजीविका कमा रही हैं । कोई वयवसाय में है कोई कॉर्पोरेट सेक्टर में तो कोई सरकारी नौकरी में, लेकिन ९९% महिलाओं की स्थिति लगभग एक जैसी है। आज भी समानता पर चर्चा करने वाले, समानता पर गोष्ठियां करने वाले, अधिकारों पर सेमिनार करने वाले समाज में औरत ही घर का काम भी देखती है बच्चों के अंक कम आने पर दाँत भी खाती है और किसी भी पर्व त्योहार पर पूरे पंडाल का पेट भरने का काम वही देखती है। आज भी कितने ही घरों में, जिनमे शिक्षित परिवारों का और भी बुरा हाल है, नहाने के बाद अपने अंतर्वस्त्र भी आदमी स्नानगृह में ही छोड़ देते हैं उनकी महिला के धोने हेतु। 

अभी हाल ही में अप्रैल में मैं पंजाब गया था। किसी रिश्तेदार के यहाँ एक कार्यकर्म था। वहाँ एक पति ने मेरी आँखो के सामने अपनी पत्नी पर हाथ उठाया और मैंने क्या देखा बाक़ी परिवार के सभी सदस्य उस आदमी को दुत्कारने के बजाये उस औरत को यह समझने का प्रयास कर रहे दे कि पति है गुस्सा आ गया इन बातों को मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। मैं आश्चर्यचकित था। वो महिला कोटकपूरा में DCM INTERNATION SCHOOL में इंग्लिश की अध्यापिका के पद पर कार्यरत है। संयोगवश उस अध्यापिका की ननद भी उनके साथ थी जो अपने पति को बार बार किसी ना किसी बात पर टोक रही थी। यहाँ अगर ध्यान से सोचा जाये तो क्या यह सामाजिक भेदभाव का उदाहरण नहीं है? प्रत्येक अभिभावक अपनी बेटी को तो प्रसन्न देखना चाहता है, अपने दामाद को बेटी की खातिरदारी करते देखना चाहता है किंतु बेटा बहू के साथ कितना भी ग़लत व्यवहार करता हो लेकिन अभिभावक बेटे की त्रुटियों को अनदेखा करने में विश्वास करते हैं। सामाजिक भेदभाव का ज्वलंत उदाहरण हमारे ही इलाक़े में मैं अक्सर देखता हूँ। यहाँ एक परिवार है जहाँ उस घर में एक माँ, बेटा और बहू रहते हैं। बहू दिल्ली जल बोर्ड में है। उसका पति कुछ नहीं करता। आए दिन उनके घर में लड़ने की आवाज आ रही होती है और उस महिला का शारीरिक उत्पीड़न अक्सर ही होता है। लेकिन जब भी उनके परिवार की पंचायत होती है सब उसी महिला को समझा कर जाते हैं कि कोई नहीं तेरा पति ही तो है ऐसे घर की बातों को बाहर नहीं उड़ाते। 

आख़िर हम किस सहभागिता पर अहंकार कर रहे हैं? वो सहभागिता जहाँ ग़लत होते हुए भी पति को केवल इसलिए क्षमा कर दिया जाता है क्यूंकि उसका स्थान पति परमेश्वर का है। औरत सही होते हुए भी केवल इसलिए ग़लत ठहरा दी जाती है क्यूंकि उसका ग़लत होना उसकी ननद को, उसकी सास को उसके पति को “लगता” है। केवल ग़लत “लगना” ही पर्याप्त है किसी को ग़लत प्रमाणित करने के लिए? आख़िर कैसे एक औरत घर, परिवार, रिश्ते, ऑफिस आदि में सामंजस्य बिठा सकती है जबकि हम उस समाज में रहते हैं जहाँ विहाह भी होता है तो वचन पत्नी ही नहीं पति भी लेता है लेकिन व्यावहारिक धरातल पर तो आज भी औरत ही ग़लत ठहरायी जा रही है, औरत ही बच्चों के भविष्य का उत्तरदायी ठहरायी जा रही है और औरत ही घर की बहू कम नौकरानी ज़्यादा बनायी जा रही है। और अपवाद में यदि कोई औरत अपने अधिकार के लिए खड़ी भी होती है तो उसे उन औरतों का हवाला देकर ग़लत साबित करने की कोशिश की जाती है जो गिने चुने मामलों में पुरुषों के साथ ग़लत व्यहवार में लिप्त होती हैं, जबकि ऐसे मामले बहुत ही कम होते हैं जिन्हें हम समाज का आदर्श मान कर प्रस्तुत नहीं कर सकते। अगर २% महिलायें ग़लत गतिविधियों में संलग्न होंगी भी तो भी ९०% सामाजिक असमानता में लिप्त पुरुष समाज को हम न्यायोचित नहीं ठहरा सकते। 

लिहाजा, आज हम जबकि विश्व में चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की और अग्रसर हैं हमे सामाजिक विषमता को समाप्त करने पर बल देना होगा। यह तभी होगा जब महिलाओं के साथ असमानता को पूर्णरूपेण समाप्त किया जाये। विशेष रूप से कामकाजी महिलाओं को उन्हें घर में ही जब तक समानता पूर्वक नहीं अपनाया जाएगी तो सामाजिक दृष्टि से आज औरत को वर्तमान समाज से जो उम्मीदें हैं वो सिसकियों में ही परिवर्तित होती रहेंगी। अब यह हमे तय करना है कि जो महिला एक सशक्त समाज का निर्माण करने का दम रखती है उस महिला को क्या हम आजीवन सिसकियों में धकेल सकते हैं या उस उसकी उम्मीदों को साकार रूप होते हुए देखना चाहते हैं।

महेश कुमार माटा

नाम: महेश कुमार माटा निवास : RZ 48 SOUTH EXT PART 3, UTTAM NAGAR WEST, NEW DELHI 110059 कार्यालय:- Delhi District Court, Posted as "Judicial Assistant". मोबाइल: 09711782028 इ मेल :- mk123mk1234@gmail.com

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