संकीर्ण जीवन-दृष्टि और टूटती नैतिक रीढ़
आधुनिक समाज में “अच्छे जीवन” की जो धारणा प्रचलित है, वह दिन-ब-दिन और भी अधिक संकीर्ण, आत्मकेन्द्रित और भौतिकतावादी होती जा रही है। जीवन के उद्देश्य को अब केवल आर्थिक सफलता, सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत सुख तक सीमित कर दिया गया है। इस सोच में मानवीय करुणा, नैतिकता, सामूहिक भलाई और आंतरिक उद्देश्य जैसे तत्वों के लिए कोई स्थान नहीं बचा है। यह एक ऐसा बदलाव है जो न केवल व्यक्ति की आत्मा को भीतर से खोखला कर रहा है, बल्कि समाज और संस्थाओं के नैतिक ढांचे को भी दिन-प्रतिदिन तोड़ता जा रहा है।
वर्तमान जीवनशैली में सफलता का पैमाना केवल संपत्ति, आलीशान घर, ब्रांडेड कपड़े और कारों में निहित है। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से सक्षम है, तो उसे अपने समाज में स्वतः ही “सफल” माना जाने लगता है, भले ही उस सफलता के पीछे बेईमानी, छल-कपट, शोषण या नैतिक गिरावट क्यों न हो। यह धारणा कि “साध्य ही सब कुछ है, साधन की परवाह नहीं”, अब आम होती जा रही है। इस विचारधारा ने ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, संवेदना और कर्तव्य जैसे नैतिक मूल्यों को बहुत पीछे छोड़ दिया है।
आज का समाज एक ऐसे व्यक्तिवाद का शिकार है जहाँ “मैं” ही प्राथमिक है, “हम” का कोई विशेष महत्व नहीं रहा। यह आत्मकेन्द्रिकता हर क्षेत्र में दिखाई देती है—शहरी नियोजन से लेकर पारिवारिक ढांचे तक। बड़े-बड़े शहरों में सामूहिक स्थानों, खेल मैदानों, पुस्तकालयों और सार्वजनिक चौपालों की संख्या घट रही है। लोग एक-दूसरे से कटते जा रहे हैं, संवाद सीमित होता जा रहा है और सामाजिक जुड़ाव केवल डिजिटल नेटवर्कों तक सिमट कर रह गया है। यहां तक कि त्योहार और पारिवारिक आयोजन भी अब “फोटो-ऑप” बनकर रह गए हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य सोशल मीडिया पर दिखाना होता है, न कि किसी भी प्रकार की वास्तविक आत्मीयता साझा करना।
भौतिकता के इस अंधे दौड़ में तात्कालिक सुख को दीर्घकालिक भलाई पर प्राथमिकता दी जा रही है। संयम, अनुशासन और तप की भावना कमजोर पड़ती जा रही है। सोशल मीडिया, उपभोक्ता वस्तुओं और बाजारवादी प्रचार के ज़रिए यह धारणा पक्की कर दी गई है कि अधिकतम उपभोग ही सुख का पर्याय है। लोग तुरंत मिल रहे संतोष में इतना लिप्त हो चुके हैं कि आत्म-संयम, आत्मनिरीक्षण और दीर्घकालिक दृष्टिकोण जैसी प्रवृत्तियाँ हास्यास्पद प्रतीत होती हैं।
उपभोग के निर्णयों में नैतिकता का कोई स्थान नहीं बचा है। हम जो पहनते हैं, खाते हैं या उपभोग करते हैं—उसके पीछे की कहानी, चाहे वह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली हो या किसी मज़दूर के शोषण की, हमें प्रभावित नहीं करती। उदाहरण के लिए, फास्ट फैशन का उद्योग आज भी फल-फूल रहा है, भले ही हम सबको पता है कि इसमें कैसे सस्ते श्रम और पर्यावरणीय संसाधनों का दोहन होता है। नैतिक उपभोक्तावाद आज भी केवल कुछ सीमित वर्गों तक सिमटा हुआ है।
इस सोच का परिणाम है कि समाज में नैतिक मूल्यों का क्षरण तीव्र गति से हो रहा है। लोग अब परिणामों को ही सब कुछ मानते हैं—उस परिणाम की प्राप्ति की प्रक्रिया चाहे जितनी भी अपारदर्शी या अनैतिक क्यों न हो। यह प्रवृत्ति केवल व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि कॉर्पोरेट दुनिया, राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा, और मीडिया जैसे हर संस्थान में दिखती है। जब लाभ की भूख नैतिक सीमाओं को लांघती है, तब कॉर्पोरेट घोटाले जन्म लेते हैं, नेताओं की ईमानदारी संदेह के घेरे में आती है और शिक्षा की पवित्रता पर व्यापार हावी हो जाता है।
नैतिक मूल्यों का ह्रास केवल संस्थागत नहीं है—व्यक्तिगत स्तर पर भी सहानुभूति और करुणा कम होती जा रही है। आज का व्यक्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति में इतना डूबा हुआ है कि उसे पड़ोसी की पीड़ा, बुज़ुर्गों की उपेक्षा, या मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रह गया है। यह संवेदनहीनता धीरे-धीरे समाज को ऐसे व्यक्तियों का समूह बना रही है जो साथ रहते हुए भी अकेले हैं, और जिनके बीच आत्मीयता नहीं, केवल उपयोगिता का संबंध रह गया है।
साथ ही, नैतिक सापेक्षवाद का चलन भी बढ़ा है। जो चीज़ें पहले स्पष्ट रूप से सही और गलत मानी जाती थीं, अब उन्हें परिस्थितियों के अनुसार उचित या अनुचित ठहराया जाने लगा है। परीक्षाओं में नकल करना, कार्यस्थलों पर झूठ बोलना, रिश्वत देकर काम करवाना—इन सबको अब “सिस्टम का हिस्सा” मान लिया गया है। यह विचार कि “अगर सब कर रहे हैं, तो मैं क्यों नहीं?” एक सामूहिक नैतिक पतन का संकेत है।
यह सब केवल सामाजिक नहीं, बल्कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी खतरनाक है। जब जीवन का उद्देश्य केवल अधिक से अधिक उपभोग बन जाता है, तो संसाधनों का दोहन अपरिहार्य हो जाता है। जलवायु परिवर्तन, जल संकट, जैव विविधता का विनाश—ये सब इसी “अच्छे जीवन” की भ्रामक परिभाषा के दुष्परिणाम हैं। यह विडंबना ही है कि हम एक ऐसा जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं जो पृथ्वी के भविष्य को ही अंधकारमय बना रहा है।
आज की स्थिति यह है कि नैतिकता अब केवल ब्रांडिंग का एक उपकरण बन गई है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ और संस्थाएँ “कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व” के नाम पर कुछ घटनात्मक कार्यक्रम करके अपने दामन को उजला दिखाने का प्रयास करती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर परिवर्तन नहीं होता। यह “सतही नैतिकता” समाज को धोखा देने के साथ-साथ आत्मप्रवंचना को भी जन्म देती है।
यदि हमें इस गिरावट को रोकना है और एक संतुलित, करुणामय तथा नैतिक समाज की ओर बढ़ना है, तो हमें “अच्छे जीवन” की धारणा को पुनर्परिभाषित करना होगा। जीवन की सफलता को केवल संपत्ति और प्रतिष्ठा से नहीं, बल्कि उद्देश्य, सद्गुणों, सहानुभूति और सामूहिक भलाई से जोड़ना होगा। इस दिशा में कुछ परंपरागत दर्शन—जैसे बौद्ध धर्म, गांधीवाद और जैन दृष्टिकोण—महत्वपूर्ण संकेत देते हैं। ये परंपराएँ आंतरिक संतुलन, अपरिग्रह, और नैतिक अनुशासन को जीवन की सफलता का आधार मानती हैं।
एक अच्छा जीवन वह है जो केवल अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी जिया जाए। जिसमें सामुदायिक सहयोग, पर्यावरणीय संवेदनशीलता और आत्म-संयम हो। जहाँ हम जो उपभोग करें, वह जिम्मेदारी के साथ करें—यह सोचकर कि हमारे निर्णय दूसरों को, प्रकृति को और आने वाली पीढ़ियों को कैसे प्रभावित करेंगे। सरकार द्वारा शुरू किया गया “LiFE” (Lifestyle for Environment) जैसे अभियान इस दिशा में एक सकारात्मक प्रयास हैं, परंतु इनका प्रभाव तभी होगा जब वे समाज के हर वर्ग तक नैतिक चेतना के साथ पहुँचें।
इस प्रक्रिया में शिक्षा की भी केंद्रीय भूमिका है। नई शिक्षा नीति 2020 ने नैतिक और जीवन कौशल शिक्षा को प्राथमिकता देने की बात की है, जो एक स्वागतयोग्य कदम है। अगर हम प्रारंभिक स्तर पर बच्चों को सहानुभूति, कर्तव्य, सच्चाई और न्याय जैसे मूल्यों से परिचित कराएँ, तो एक पीढ़ी तैयार हो सकती है जो “अच्छे जीवन” की एक व्यापक और समावेशी परिभाषा को आत्मसात कर सके।
अंततः, जीवन का अर्थ केवल जीने में नहीं, बल्कि सही ढंग से जीने में है। और सही ढंग से जीना केवल भौतिक सफलता में नहीं, बल्कि एक ऐसे संतुलन में है जहाँ आत्मा शांत हो, समाज स्वस्थ हो और पृथ्वी संरक्षित हो। यदि हम ऐसा जीवन जीना सीखें, तो शायद हम न केवल अपने लिए, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकें।
— डॉ. सत्यवान सौरभ