ग़ज़ल
पत्थर दिल मुझको कहते, मेरे घर के अपने,
तन्हाई में पिंघला करता हूँ, देख टूटते सपने।
नये दौर में धन दौलत ही, रिश्तों की आधार,
ख्वाहिश सबकी पूरी हो, नाम लगें सब जपने।
था कुछ पैसा पास हमारे, निगाह लगी सबकी,
छोटे बड़े सभी ख़र्चों पर, हमको लगते तकने।
रिश्ते नाते यार दोस्त, सब करते लल्लो चप्पो,
मना किया एक बार, लगे रिश्तों के क़द घटने।
अहंकारी कहा कभी, कुछ ने ताने खूब सुनाये,
नहीं मिला कोई हमको, जब पैर लगे थे थकने।
जो बौने क़द में रिश्तों के, मानवता पाठ पढ़ाते,
खुद को दरख़्त बताते देखे, जो छू न पाये टखने।
— डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन