डिफॉल्ट

दोहा- कहें सुधीर कविराय

संत कबीर


जन्म जयंती आज है, जिनका नाम कबीर।
जन मन कहते प्रेम से, पीर संग रघुवीर।।

तीखे उनके बोल थे, भाव बड़े ही गूढ़।
समझ जिसे आया नहीं, वहीं बड़ा है मूढ़।।

काशी  में  पैदा  हुए,  आये मगहर  धाम।
मिला यहीं पर संत को, मुक्ति का आयाम।।

धर्म  जाति  से  दूर  थे,  हुआ  ब्रह्म  का  ज्ञान।
जन-मन जिनको पढ़ रहा, दिया शब्द जो दान।।

दुनिया कहती आज भी, जिनको संत महान।
कविवर भी उनको कहें, जिनसे मिलता ज्ञान।।

मुख से निकले शब्द जो, बने ब्रह्म का ज्ञान।
निंदा नफरत से परे, संत कबीर लो जान।।

फक्कड़पन में दे दिया, जिसने जग को ज्ञान।
कुछ बौखल कहते रहे, कबीरा है नादान।।


पर्यावरण 


जल जंगल पर हो रहा, अब तो रोज प्रहार।
ओढ़ लबादा दंभ का, कुत्सित है व्यवहार।।

जल स्रोतों का हो रहा, दोहन अरु व्यापार।
हर  प्राणी  बेचैन  है,  सहता   अत्याचार।।

गर्मी से हम जल रहे, इसका हमको ध्यान।
आज मनुज का देखिए,  ये कैसा है ज्ञान।।

कहते हैं यमराज जी, वृक्ष लगाओ एक।
देख भाल भी कीजिए, भागें रोग अनेक।।


माँ गंगा 


गंगा माँ को पूजते, भले आज हम आप।
पर मैली भी कर रहे, करते  रहते  पाप।।

गंगा निर्मल धाम है, मान  रहे  हैं  लोग।
मैली अब भी कर रहे, कैसा ये संयोग।।

गंगा माँ हमको सदा, करती रहना माफ।
कोशिश में हम हैं लगे, तव धारा हो साफ।।


आपदा


बड़ी आपदा आ गई, नहीं किसी को ज्ञान।
जैसे खुद ही काल ने, ले ली इतनी जान।।

उड़ने के ही संग में, किसकी पड़ी कुदृष्टि।
खामी तकनीकी रही, या आपदा निकृष्ट।। 

यह कैसी थी आपदा, जिससे विचलित लोग।
महज  एक  संयोग  है,  या  मानें  दुर्योग।।

सुंदर  प्यारे  भाव  थे, सभी  रहे  खुशहाल।
किसे पता इक आपदा, बन जायेगी काल।।

भले आपदा हम कहें, शंकित मन को नेह।
दुर्घटना के  पार्श्व  में, लगता   है   सदेह।।


विमान दुर्घटना 


दुर्घटना  कैसे  घटी, बड़ा  प्रश्न  है  आज।
इसके पीछे कौन है, जो इसका सरताज।।

मरने  वाले  मर  गए, देकर  गहरे  घाव।
दुर्घटना की आड़ में, आँसू संग अभाव।।

टकराया  था  काल  से, नहीं  हुआ  आभास।
कुछ भी हम इसको कहें, हुआ बड़ा संत्रास।।

भरी उड़ान विमान ने, मंजिल लगती पास।
कुछ पल में ही ढह गया, जैसे पत्ता तास।।

अंतिम यात्रा बन गई, उड़कर  चला  विमान।
यात्री गण की सोच में, नहीं मौत का ज्ञान।।

भोजन जो थे कर रहे, उन पर गिरा विमान।
कहाँ पता था किसी को, मृत्यु का ये प्रस्ताव।।

मृत्यु को छूकर आ सके, बस रमेश विश्वास।
बाकी  जो  भी  शेष  थे, टूटी सबकी आस।।

था विमान का हादसा, या दावानल मौत।
एक सफर अंतिम बना, या जीवन का सौत।।


 व्यवहार


मिलता सबको है वही, जिसका जैसा व्यवहार। 
फिर  हम जाते भूल  क्यों, सही  मान  आधार।।

मात-पिता  से  हो  रहा, ये कैसा व्यवहार।
जैसे अपने सिर वही, सबसे ज्यादा भार।।

रखना हमको चाहिए, सबसे उत्तम व्यवहार।
समय संग करते रहें, जन-मन का आभार।।

चाहे जैसा हो समय,  करो प्रेम व्यवहार।
इसके पीछे है बड़ा, अनुभव का संसार।।

व्यवहारों से हो रहा, हर मुश्किल आसान।
हर प्राणी को चाहिए, होना इसका ज्ञान।।


कल किसको मालूम था


कल किसको मालूम था, इंतजार में मौत।
अंतिम होगा सफर ये, मृत्यु बनेगी सौत।।

कल किसको मालूम था, काल की ऐसी चाल।
जाना था गंतव्य को, मौत  बजाती  गाल।।

कल किस को मालूम था, होनी का ये लेख।
अब क्या होगा फायदा, व्यर्थ मीन अरु मेख।।

दोष  नहीं  लेते  कभी,  ईश्वर  अपने  शीश।
कल किसको मालूम था, मिट जायेगी खीस।।

कल किसको मालूम था, अगले पल का खेल।
हर प्राणी के साथ ही, चले मृत्यु की रेल।।

माया में फंसकर हुआ, मानव इतना हीन।
समझ नहीं आता उसे, कितना है वो दीन।।

श्रद्धा से करिए सदा, निज-निज ईश प्रणाम।
हर मुश्किल के बाद भी, बने आपका काम।।

जीवन में जो है मिला, वही मूल्य आधार।
इससे ज्यादा और क्या, चाह रहे संसार।।

जो हमने सोचा नहीं, हुआ  वही  है  खेल।
समय पूर्व ही चल पड़ी, अपने मन की रेल।।

पथ  बाधा  के  बीच  में, आस  यही  है  एक।
चहुँदिश दिखते हैं जिन्हें, खिलते पुष्प अनेक।।


पिता


धरती से भारी पिता, रखिए  इसका  ध्यान।
सबसे ज्यादा है उसे, जीवन अनुभव ज्ञान।।

पिता बिना जग सून है, मन में नहीं उजास।
खुद के ऊपर से उठा, खुद का ही विश्वास।।

ईश्वर सा होता पिता, नभ सम उसका स्थान।
फिर भी पाता है कहाँ, तात उचित सम्मान।।

जब तक जिंदा थे पिता, समझे कब थे मोल।
दुनिया  जैसे छोड़  दी, लगे  बहुत रस घोल।।


विविध 


मौन सभा के बीच में, सब कितने असहाय।
चीख  रही  थी  द्रौपदी, ये  कैसा  अन्याय।।

चीर बढ़ाया श्याम ने, भरी सभा थी दंग।
दुर्योधन की समझ में, नहीं आ रहा रंग।।

पुत्र मोह में था फँसा, अंधा राजा मौन।
चीर हरण होता रहा, आगे बढ़ता कौन।।

कान्हा मेरी लाज अब, आप  बचाओ  आज।
नहीं किसी की इस सभा, बची शर्म की ताज।।

नीति नियम सिद्धांत के, सभी पुरौधा मौन।
बेबस  रोती  द्रौपदी, लाज  बचाता  कौन।।

शीश  झुकाकर  आपको, देते  हम  सम्मान।
इसका मतलब तो नहीं, आप करो अभिमान।।

मौसम  को  क्यों  आप हम, नाहक  देते  दोष।
नहीं समझते क्यों भला, उसके दिल का रोष।।

जितना देते हम रहे, उनको ज्यादा मान।
उतना ही वे फैलकर, दिखा  रहे हैं  शान।।

नेता जी  घर  भर  रहे, जनता  रही  कराह।
उसके हिस्से आ रही, सुबह-शाम बस आह।।

राजनीति के खेल का, कहाँ नियम सिद्धांत।
हर  कोई  खुद  को  कहे, मैं  ज्ञानी  वेदांत।।

आशाएं उतनी रखो, जितना हो विश्वास।
टूटे तो भी प्रेम से, बात नहीं कुछ खास।।

मानवता की भावना,  तोड़  रही दम आज।
स्वार्थ सिद्ध में सब लगे, एक सूत्रीय काज।

आओ मिलकर हम लिखें, नव उन्नति आयाम।
 दुनिया को संदेश दें, कठिन  नहीं कुछ काम।।

सुविधा सबको चाहिए, धरे हाथ  पर हाथ।
सबका निज अधिकार हो, देना पड़ता साथ।।

ऊंचा होगा लक्ष्य जब, मिले सफलता स्वाद।
भला अरू क्या मार्ग है, हरता दर्द विषाद।।

टूट  रहा  विश्वास  है, मानव  मन  बेचैन।
अपने देते घाव हैं, सुबह -शाम अरु रैन।।                      

संबंधों में अब नहीं, अपनेपन का भाव।
पता नहीं कब कौन दे, जीवन भर का घाव।।

मातृशक्ति में आ रहा, ये कैसा बदलाव।
विचलित होती है नहीं, देतीं जमकर घाव।।

डर-डर कर जीने लगा, अब तो पुरुष समाज।
नित्य प्रभावित हो रहा, उनका दैनिक काज।।

कलयुग  के  इस  दौर  में,  होते  कैसे  खेल।
नीति नियम सिद्धांत सब, पल-पल होते फेल।।

चेहरा पढ़कर क्या भला, कर पायेंगे आप।
जिसके पीछे  हैं छिपे, बड़े  घिनौने  पाप।।

अभी-अभी घटना घटी, कैसे  हो  विश्वास।
जाने किसके कोप से, टूट  गई  सब आस।।

रिश्ते भी  देने  लगे, रिश्तों  को  ही   दर्द।
काँप रहे सब इन दिनों, जैसे भीषण सर्द।।

करते  जो  अपराध  हैं, उनको  इतना  ज्ञान। 
फिर भी करते जोश में, समझें नहीं विधान।।

कुंठा  बढ़ती  जा  रही, हर  प्राणी  में  आज।
कारण सबसे है बड़ा, दूषित  हुआ  समाज।।

खुद को माने श्रेष्ठ वे,  जिनमें  दंभी  भाव।
रखते सबके साथ जो, नफ़रत और दुराव।।

शीष झुका मैंने किया, भला कौन  सा  पाप।
इतने भर से क्यूँ भला, बढ़ा  आपका  ताप।।

समझ  नहीं  कुछ  आ  रहा,  लीला तेरी राम।
बतला दो अब आप ही, ये है किसका काम।।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921

Leave a Reply