रुक्मणि की मनोव्यथा
रुक्मणि हूँ, तेरी पटरानी हूँ, न बन सकी तेरे मन की रानी,
हे घनश्याम घन बन बरसो द्वारिका में, पहनूं चुनरिया धानी।
कहने को मैं हूँ तेरी रानी, मन में बसी तेरे तेरी राधिका प्यारी,
कभी तो मुझे भी बसाओ मन में, मैं भी जाऊं तुझ पर वारी!
पहले भाई रुक्मि ने लगाए पहरे, तुमने मुझे कैद से छुड़ाया,
अब फिर रही मैं कैद द्वारिका में, तनिक भी रहम न आया!
राधिका को चाहो बेशक पर कभी मेरी भी तो सुध लो श्याम,
कभी मुझे भी ले चलो ब्रज में, मिलूं मैं राधा से मांगूं तुझे श्याम।
मेरे मन की टीस मन में ही रही, हे मधुसूदन तुम जान न पाए,
कैसे बने हो निर्मोही अब तुम, मुझको रहे हो निपट बिसराए!
कृष्ण, तुझे ही मैं हृदय से चाहती हूं, अपना देवता मानती हूं,
तुम मुझे देवी मानो-न-मानो, अपना तो समझो, चाहती हूँ!
दिन नहीं चैना, नींद नहीं रैना, नैन मूंदूं छवि तेरी नजर आए,
चक्षु से बहे अनवरत अश्रुधार, नैन खोलूं तो तू नजर न आए!
एक बार बस आओ, मुझे अपनाओ, चैन-करार दिल को आए,
बीत रही है यूं ही पल-पल उमरिया, रीती ही कहीं न बीत जाए!
— लीला तिवानी