हम बच्चे बन जाते हैं
वो भी क्या खूबसूरत दिन थे!
जब फ़ुरसत-ही-फ़ुरसत होती थी,
कहां गए फ़ुरसत के वो दिन जिनमें,
न गुस्सा आता था, न रंजिश होती थी!
गुल्ली-डंडा गिट्टे-कंचे खेलते देर तक,
डांट का डर न होता, ढीठ बने रहते,
मां के बने लड्डू की चोरी को हम,
किंचित भी चोरी न समझते!
मां की मीठी लोरी अब भी,
गीत-कविताओं में ढल जाते,
नानी की परियों की कहानियां,
नानी-दादी बन के सुनाते।
उछलते-कूदते बचपन के दिन,
अब भी याद जब आते हैं,
ढलती सांझ के साये में आज भी,
हम बच्चे बन जाते हैं।
— लीला तिवानी