कविता

हम बच्चे बन जाते हैं

वो भी क्या खूबसूरत दिन थे!
जब फ़ुरसत-ही-फ़ुरसत होती थी,
कहां गए फ़ुरसत के वो दिन जिनमें,
न गुस्सा आता था, न रंजिश होती थी!

गुल्ली-डंडा गिट्टे-कंचे खेलते देर तक,
डांट का डर न होता, ढीठ बने रहते,
मां के बने लड्डू की चोरी को हम,
किंचित भी चोरी न समझते!

मां की मीठी लोरी अब भी,
गीत-कविताओं में ढल जाते,
नानी की परियों की कहानियां,
नानी-दादी बन के सुनाते।

उछलते-कूदते बचपन के दिन,
अब भी याद जब आते हैं,
ढलती सांझ के साये में आज भी,
हम बच्चे बन जाते हैं।

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

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