अंगूठियों का संदूकचा।
कश्मीर की बर्फ़ से ढकी वादियों में, मैं अक्सर अपनी फोर व्हीलर में सामान लेकर जाता था। एक दिन, गाड़ी एक सुनसान पहाड़ी रास्ते में खराब हो गई। जब मरम्मत की कोई सूरत नज़र नहीं आई, तो मैंने अपने हेल्पर को गाड़ी के पास छोड़ दिया और खुद मदद की तलाश में नीचे गाँव की ओर उतर आया।
रास्ते में एक आदमी मिला, जिसकी मदद से बड़ी मुश्किल से गाड़ी चल पड़ी। मैंने हेल्पर से कहा, “तुम गाड़ी में ही सो जाना, मैं भाई को छोड़कर आता हूँ। अगर देर हो जाए तो घबराना मत।” उसके लिए कुछ बिस्किट वग़ैरह छोड़ दिए।
जब मैं मैकेनिक को छोड़कर वापस आ रहा था, तो एक छोटे से ढाबे जैसी जगह पर मेरी नज़र ठहर गई। वहाँ एक खूबसूरत लड़की दिखी, जो शायद मुसाफिरों के लिए खाना बनाती थी। उसकी आँखों में अजीब सी कशिश थी, मैं रुक गया। उससे बात की, खाना खाया, और वहीं रात बिताने का इरादा कर लिया।
रात भर हमने ज़िंदगी की कड़वी-मीठी बातें कीं। सुबह मैंने उसे अपनी अंगूठी दी और कहा, “मैं तुमसे मिलने ज़रूर आऊँगा, अगर बुरा न मानो तो मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।” वह मुस्कराई, कुछ न बोली। मैं एक रात वहाँ रुका और फिर अपनी मंज़िल की ओर निकल पड़ा।
कई महीनों की मेहनत और कमाई के बाद मैं वापस लौटा। दिल में उम्मीद और बेचैनी थी। उसके ढाबे पर पहुँचा, उसे सलाम किया। उसने मुझे देखकर पहचानने की कोई कोशिश नहीं की। मैंने कहा, “याद है, मैंने तुम्हें एक अंगूठी दी थी और वादा किया था कि लौटूँगा। देखो, मैं आ गया!”
वह चुपचाप मुस्कराई, फिर अंदर गई और एक पुराना सा संदूकचा ले आई। उसे खोला, उसमें कई अंगूठियाँ थीं। बोली, “देखो, इनमें से अपनी अंगूठी पहचानो।”
मैं कभी खुद को, कभी उसे देख रहा था। समझ नहीं पा रहा था कि मेरे साथ क्या हो रहा है। वह चुप खड़ी थी, उसकी आँखों में बरसों की कहानियाँ थीं। मैं अपनी अंगूठी ढूँढ़ने लगा, पर मेरे हाथ काँप रहे थे। शायद मोहब्बत कभी-कभी हमारी अपनी पहचान को मुश्किल बना देती है।
मैं संदूकचे के सामने बैठा था, हर अंगूठी को गौर से देख रहा था। मेरी दी हुई अंगूठी भी शायद उन्हीं में कहीं छुपी थी, मगर अब वे सब एक जैसी लग रही थीं। मेरी उंगलियाँ काँप रही थीं, दिल में अजीब सी बेचैनी थी। मैंने एक अंगूठी उठाई, फिर दूसरी, फिर तीसरी। हर बार वही सवाल, क्या यही मेरी अंगूठी है?
वह लड़की चुपचाप मुझे देख रही थी। उसकी आँखों में न कोई उम्मीद थी, न मायूसी। बस एक गहरी ख़ामोशी। मैंने हिम्मत कर के पूछा,
“ये सब अंगूठियाँ?”
वह धीरे से बोली,
“ये सब वादे हैं। हर अंगूठी के साथ किसी ने लौटने का वादा किया था। कुछ लौट आए, कुछ कभी न आए।”
मैं चुप हो गया। मेरे दिल में एक कसक सी उठी। मैंने कहा,
“मेरा वादा सच्चा था। मैं लौट आया हूँ।”
वह मुस्कराई, इस बार उसकी मुस्कान में एक कड़वाहट थी,
“कभी-कभी लौट आने से वादे पूरे नहीं होते। वक़्त बदल जाता है, लोग बदल जाते हैं। यहाँ हर आने वाला मुसाफिर एक कहानी छोड़ जाता है। तुम्हारी कहानी भी अब इस संदूकचे में बंद हो गई है।”
मैंने संदूकचा बंद किया, उसकी तरफ देखा।
“तो क्या अब मैं भी एक कहानी बन गया हूँ?”
वह धीरे से बोली,
“हम सब किसी न किसी की कहानी हैं। तुम भी, मैं भी।”
मैंने आख़िरी बार उसकी आँखों में देखा। वहाँ एक ख़ामोश समंदर था, जिसके किनारे मेरी उम्मीद की कश्तियाँ डूब चुकी थीं। मैं चुपचाप उठा, बाहर निकला। पहाड़ों की फ़िज़ा में एक अनजानी सी उदासी घुल गई थी।
मोहब्बत सिर्फ़ वादों से नहीं, वक़्त और वफ़ा से मुकम्मल होती है। कुछ कहानियाँ अधूरी रहकर ही अमर हो जाती हैं। मैं अपनी मोहब्बत को खोना नहीं चाहता था। मैं दोबारा लौटा।
जब मैंने फिर से संदूकचे में अपनी अंगूठी ढूँढ़ने की कोशिश की, तो मेरे हाथ काँप रहे थे। मैंने हिम्मत कर के कहा,
“ये रही मेरी अंगूठी।”
उसने मेरी तरफ देखा, उसकी आँखों में इस बार एक अलग सी चमक थी।
“तुम्हें कैसे यक़ीन है कि यही तुम्हारी अंगूठी है?”
मैंने मुस्कराकर कहा,
“क्योंकि इसमें मेरा वादा बंद है।”
वह ख़ामोश रही, फिर धीरे से बोली,
“तुम वाक़ई लौट आए हो। बहुत कम लोग अपने वादे निभाते हैं।”
मैंने उसके हाथ में अपनी अंगूठी थमा दी।
“क्या तुम मेरे साथ अपनी ज़िंदगी गुज़ारना चाहोगी?”
वह पल भर चुप रही, फिर उसने हाँ में सिर हिला दिया। उसकी आँखों में खुशी और आँसू दोनों थे।
“हाँ, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।”
पहाड़ों की फ़िज़ा में एक नई उम्मीद जाग उठी।
मोहब्बत में अगर सच्चाई और वफ़ा हो, तो हर अधूरा वादा भी एक नई शुरुआत बन सकता है। मैंने अपने हेल्पर को गाड़ी की चाबी दी और कहा,
“आज से ये गाड़ी तुम्हारी है, तुम इसके मालिक हो। मैं अब यहीं रहूँगा, इन्हीं वादियों में, अपनी सारी खुशियाँ इस लड़की के साथ बाँटूँगा।”
हेल्पर हैरान था, मगर मेरी आँखों में अज़्म देख कर चुपचाप गाड़ी लेकर चला गया। फ़िज़ा बदल गई थी। चारों तरफ़ ख़ामोशी थी, तन्हाई थी, मगर उस तन्हाई में एक अजीब सी खुशबू थी—उम्मीदों और आरज़ुओं की खुशबू।
अब मैं और वह लड़की, दोनों उस छोटे से ढाबे को अपना आशियाना बनाने लगे। सुबह की ठंडी हवा में उसके हाथों की महक, शाम की चाय में उसकी मुस्कान, और रात की ख़ामोशी में उसकी बातें—सब कुछ बदल गया था।
पहाड़ों की उस वादी में अब मेरा दिल भी आबाद था।
हम दोनों ने मिलकर अपनी छोटी सी दुनिया बसा ली, जहाँ न कोई पुराना दुख था, न कोई अधूरा वादा।
सिर्फ़ हम थे, हमारी मोहब्बत थी, और वे वादियाँ—जिनकी ख़ामोशी अब हमारी हँसी से गूँजती थी।
कभी-कभी असली खुशी किसी चीज़ को पाने में नहीं, बल्कि किसी को सौंप देने में और खुद नई ज़िंदगी शुरू करने में होती है।
मोहब्बत जब मंज़िल बन जाए, तो हर वादी, हर ख़ामोशी, खुशियों से महक उठती है।
— डॉ. मुश्ताक अहमद शाह