कविता

बदलाव

गर मुझ में बदलाव नहीं,
किस काम का ज्ञान?
सिर्फ औरों को दे उपदेश,
बढ़ता कहाँ मान?
औरों के पैरों के,
नज़र आते है शूल,
अपनी आँखों के तृण,
अक्सर जाते हैं भूल।
परिवर्तन हैं सफल-सुखकर,
जीवन का मूल।
बिना बदलाव हर ऋतु में,
उडती नयनन धूल।
स्वागत करों नव सृजन का,
लक्ष्य हो सुख शान्ति।
मंजिल एक, राहें अनेक,
सुझाव भांति-भांति।
नवाचार की थाम ध्वजा,
जय जयकार करो।
असली-नकली की पहचान से,
गुल्लक नित्य भरो।
प्रकृति माँ की करो उपासना,
सीख हृदय धरो।
ऊंच नीच आएं जीवन में,
समता भाव से पीड़ हरो।।
स्वयं-सिद्ध ज्ञान अर्जित,
पहले छांटो फिर बाँटो।
बदलाव वर्तन-व्यवहार में,
लाता तेजोमय आभा।
स्वयं उदाहरण बन दुनिया में,
नया पाठ पढ़ाओ।
अब्दुल-अटल-लाल बन,
जग में सपन सजाओ।
स्वीकार करो नव आचार-विचार,
परिवर्तन लाओ।
कच्चे हीरे को तराश कर,
खुद जौहरी बान जाओ।

— कुसुम अशोक सुराणा

कुसुम अशोक सुराणा

मुंबई महाराष्ट्र

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