उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 48)
43. भ्रष्ट शहजादे से पहला प्रतिशोध
जिस समय मलिक काफूर अलाउद्दीन के निर्बल पुत्रों शादी खाँ और अबू वक्र को अपने हाथों अंधा कर रहा था ठीक उसी समय एक रात खिज्र खाँ जिस कक्ष में देवलदेवी के साथ कैद था, उसी कक्ष में हसन अपने और काफूर के कुछ सैनिकों के साथ घुसा।
हसन को सैनिकों के साथ कक्ष में आया देखकर खिज्र खाँ हड़बड़ाकर बोला, ”हसन, तुम इतनी रात गए, क्या बात है?“
हसन (धर्मदेव), देवलदेवी, जो उठकर अपने वस्त्र संभालकर एक तरफ खड़ी हो गई थीं, को देखते हुए बोला, ”बस शहजादे आपको देखने की तीव्र इच्छा हमें आपके पास खींच लाई।“
”नहीं हसन, इतनी रात हम किसी से नहीं मिलते, अभी जाओ, कभी दिन के उजाले में आना।“
”शहजादे हुजूर, कार्य अत्यंत आवश्यक है और हम नहीं चाहते आपकी रोशनी आफताब की रोशनी में छीनी जाए।“
”क… क… क्या मतलब हसन?“ खिज्र खाँ कक्ष में ही भागता हुआ बोला।
”मतलब यह शहजादे कि तुम दुनिया बहुत देख चुके। अपनी कामुक आँखों से इस पाक दुनिया को बहुत नापाक कर चुके। अब आपकी चश्मों की उम्र खत्म।“ हसन हँसते हुए बोला।
”नहीं हसन, मुझे बख्श दो।“
वह देवलदेवी के पीछे जाकर छुपने का प्रयास करता है। हसन के इशारे पर सैनिक उसे पकड़कर कक्ष के मध्य में लाते हैं। खिज्र खाँ देवलदेवी की ओर कातर दृष्टि से देखकर बोला ”मुझे बचाओ बेगम, मुझे बचाओ।“
हसन का इशारा पाकर दो सैनिक दिखावे के लिए देवलदेवी को तलवार निकालकर घेरकर खड़े हो जाते हैं। सैनिकों के बंधन में तड़पते खिज्र खाँ की तरफ हसन अपने दोनों हाथों में नंगी तलवार लिए आगे बढ़ते हैं और उन्हें खिज्र खाँ की दोनों आँखों में बेरहमी से भोंकते हैं।
‘या अल्लाह…’ की मार्मिक चीख खिज्र खाँ के कंठ से निकलती है, उसकी आँखों से लहू का फव्वारा फूट पड़ता है। वह दर्द की इंतिहा से सैनिकों की गिरफ्त में मचलने लगता है और उस समय देवलदेवी के होठों पर घृणात्मक मुस्कान छा जाती है।
अच्छा उपन्यास ! जिस तरह योजनाबद्ध तरीके से देवल देवी ने अपना प्रतिशोध लिया, यदि जोधाबाई जैसी अन्य महिलाओं में भी वैसी ही बुद्धि होती, तो देश का इतिहास ही कुछ और होता.