धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

धर्म और नैतिकता

‘धर्म’ शब्द धृञ् धारणे धातु से ‘मन’ प्रत्यय करके निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-धारण, पोषण और रक्षा करना। इसलिए जो धारण किया जाता है, वह धर्म है। वैशेषिक दर्शन में महर्षि कणाद कहते हैं-‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः’ अर्थात् जिन कर्मों का अनुष्ठान करने से मनुष्य जीवन का अभ्युदय हो और अन्त में निःश्रेयस की प्राप्ति हो वह धर्म है। ऋग्वेद के एक मन्त्र (01/22/18) में कहा गया है-

‘त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्’।।  अर्थात् कभी विनाश को न प्राप्त होने वाला, जगत् का रक्षक परमेश्वर समस्त धर्मों को धारण करता हुआ तीनों प्रकार के जानने योग्य और प्राप्त होने योग्य पदार्थों को इस मूल कारण से ही विविध रूपों में बनाता है। मनुस्मृति में में कहा गया है-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।          

          स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

अर्थात् इसी ब्रह्मवर्त देश में उत्पन्न हुए विद्वानों के सानिध्य से पृथ्वी पर रहने वाले सब मनुष्य अपने-अपने आचरण अर्थात् कर्तव्यों की शिक्षा ग्रहण करें।  मनुस्मृति में धर्म के धृति, क्षमा आदि दस लक्षण बताए गए हैं। यदि मनुष्य इन पर आचरण करते हुए जीवन बिताये तो सारे विश्व में शान्तिमय वातावरण पैदा कर समस्त मानव जाति को सुखी बनाया जा सकता है। चाणक्य के अनुसार सुख का मूल धर्म है, धर्म का मूल अर्थ है, अर्थ का मूल राज्य है, राज्य का मूल इन्द्रिय-जय है। इन्द्रिय-जय या संयम के बिना कोई राज्य सुरक्षित नहीं रह सकता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में कहा है- ‘कहने सुनने-सुनाने, पढ़ने-पढ़ाने का फल यही है कि जो वेद और वेदानुकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना। इसलिए धर्माचार में सदा युक्त रहे।’ इसी ग्रन्थ में यह भी कहा गया है- ‘जो सत्य-भाषणादि कर्मों का आचरण करना है, वही वेद और स्मृति में कहा हुआ आचार है।’ इस प्रकार धर्माचरण से ही धर्म की प्राप्ति, सिद्धि एवं अभिवृद्धि देखकर मुनियों ने सब तपस्याओं का  श्रेष्ठ मूल आधार धर्माचरण को ही स्वीकार किया है। वेदों के उपदेशों का सार ही उपनिषदों और आरण्यकों में दिया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् को तो एक प्रकार से नैतिक शिक्षा का भण्डार ही कह सकते हैं। इसके एकादश अनुवाक में वेद-विद्या पढ़ा चुकने के बाद आचार्य अन्तेवासी शिष्य को दीक्षान्त-भाषण में उपदेश देता है – सत्य बोलना। धर्माचरण करना। स्वाध्याय से प्रमाद मत करना। आचार्य को जो प्रिय हो वह दक्षिणा मे उसे देकर ब्रह्मचर्याश्रम के अनन्तर गृहास्थाश्रम में प्रवेश करना और प्रजा के सूत्र को मत तोड़ना। सत्य बोलने से प्रमाद न करना, जिस बात से तुम्हारा भला हो उससे प्रमाद मत करना। अपनी विभूति बढ़ाने में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय और प्रवचन में प्रमाद मत करना। माता, पिता, आचार्य और अतिथि को देव मानने का उपदेश किया गया है। विद्वानों के उपदेशों को ध्यान से सुनने और किसी विवाद में न पड़ने को कहा गया है।

नीति का अर्थ है मनुष्य के जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन-रूप नियम, जिन पर चल कर इस जीवन और परलोक (पुनर्जन्म) में कल्याण की प्राप्ति हो। आचार शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से है, जिसमें आत्मोन्नति पर बल दिया गया है। नैतिक शिक्षा में व्यक्ति के आचार-विचार की शुद्धि के साथ ही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, वैश्विक और प्राणि मात्र से सम्बन्धित विषयों पर विचार किया जाता है। मनुष्य अपने-पराये, सजातीय-विजातीय, शत्रु-मित्र, परिचित-अपरिचित, आदि से किस प्रकार का व्यवहार करे यह नैतिक शिक्षा बताती है। इसके द्वारा समाज के प्रत्येक व्यक्ति का वास्तविक कल्याण होता है। नैतिक शिक्षा का मूल वेदों में मिलता है। ‘सर्वं वेदात् प्रसिध्यति’- इस भारतीय सिद्धान्त से ज्ञात होता है कि अपौरुषेय वेदों से ही समस्त विद्याएं प्रादुर्भूत हुई हैं। वेदों में विधि और निषेध  अर्थात् मनुष्यों के कर्तव्य और अकर्तव्य कर्म वर्णित हैं। वेदों के साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पंचतन्त्र, विदुर, शुक्र, भर्तृहरि, आदि ऋषियों के नीति ग्रन्थों में इनका विस्तृत वर्णन है।

जिससे अभ्युदय धारण हो वह धर्म है और इस अभ्युदय को प्राप्त करने के लिए जो उपाय हैं वे नीति कहलाते हैं, इस प्रकार देखा जाये तो दोनों का एक ही अर्थ होता है। कुछ लोग लौकिक अभ्युदय को प्राप्त करने के साधन को ‘नीति’ और पारलौकिक साधन को धर्म कहते हैं। नीति या नैतिकता से ही शास्त्र और धर्म प्रतिष्ठित होते हैं। नैतिकता के अभाव में शास्त्र और धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्मविहीन नैतिकता का कोई औचित्य नहीं है, भले ही यह आरम्भ में कुछ चमत्कारिक सफलता दिला दे परन्तु अन्ततोगत्वा वह पतन की ओर ही ले जायेगी। मनस्मृति में कहा गया है- ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ अर्थात् हमारे जीवन में जो स्वाभाविक धर्म और संयम रहता है, वह हमारी रक्षा करता है और जो हम धर्मपूर्वक आचरण या सदाचार करते हैं, वह धर्म हमारी रक्षा करता है। नीति या नैतिकता का मूल ही सदाचार है। धर्म की दृष्टि से नैतिकता के चार पाद हैं-सत्य, तप, दया और पवित्रता। इनमें सत्य को सर्वोपरि माना गया है। सामवेद में कहा गया है-‘स्तुहि सत्यधर्माणाम्’ अर्थात् सत्यनिष्ठ की प्रशंसा करे। मुण्डकोपनिष्द् में कहा गया है-

सत्यमेव जयति  नानृतं  सत्येन  पन्था  वितो  देवयानः।

येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।।

अर्थात् सत्य की विजय होती है, असत्य की नहीं। सत्य धाम में गमन करते हैं जहां सत्य का वह परम आश्रय परमात्मा अनावृत रूप से स्थित है। तप का अर्थ है- पीड़ा सहना, घोर कड़ी साधना करना, मन का संयम रखना आदि। महर्षि दयानन्द के अनुसार ‘‘जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालकर इसका मल दूर किया जाता है उसी प्रकार सद्गुणों और उत्तम आचरणों से अपने हृदय, मन और आत्मा के मैल को दूर  किया जाना तप है। गीता में तप तीन प्रकार के बताए गए हैं- शारीरिक, जो शरीर से किया जाये। वाचिक, जो वाणी से किया जाये और मानसिक, जो मन से किया जाये। देवताओं, गुरूओं और विद्वानों की पूजा अर्थात यथा योग्य सेवा और सुश्रूषा करना, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तप है। ब्रह्मचर्य का अर्थ हैः शरीर के बीजभूत भाग तत्त्व की रक्षा करना और ब्रह्म में विचरना या अपने को सदा परमात्मा की गोद में महसूस करना। किसी को मन, वाणी और शरीर से हानि न पहुंचाना अहिंसा है। हिंसा और  अहिंसा केवल शारीरिक ही नहीं अपितु वाचिक और मानसिक भी होती हैं । वाणी के तप से अभिप्राय हैः ऐसी वाणी बोलना जिससे किसी को हानि न पहुंचे। सत्य, प्रिय और हितकारक वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी के तप के साथ ही स्वाघ्याय की बात भी कही गई है। वेद, उपनिषद आदि सद्ग्रन्थों का नित्य पाठ करना और अपने द्वारा किये जा रहे नित्य कर्मों पर भी विचार करना स्वाध्याय है। मन को प्रशन्न रखना, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और चित्त की शुद्व भावना यह सब मन का तप है। मनु कहते हैं कि तप से मन का मैल दूर होता है और पाप का नाश होता है। शास्त्र कहते हैं कि अपने को ऊपर उठाना है तो तपस्वी बनो। अथर्ववेद में कहा गया है- ‘ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति’ अर्थात् ब्रह्मचर्य एवं तप से राजा विविध प्रकार से राष्ट्र की रक्षा करता है। दया की महिमा भी नैतिक कृत्यों के रूप में शास्त्रों में सर्वत्र मिलती है। तुलसीदास कहते हैं-

दया  धर्म  का  मूल है,  पाप मूल अभिमान।

    तुलसी दया न छोडि़ये जब लौं घट में प्राण।।

मनुष्यों को न केवल शरीर अपितु मन, बुद्धि और आत्मा को भी पवित्र रखना चाहिए। मनुस्मृति में कहा गया है-

अद्भिर्गात्राणि शुद्धन्ति मनः सत्येन शुद्धति।                           

विद्यातपोभ्यां  भूतात्मा  बुद्धिज्ञानेन  शुद्धति।।

अर्थात् जल से शरीर के बाहरी अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप से जीवात्मा और ज्ञान या विवेक से बुद्धि निश्चित रूप से पवित्र होती है। मानव-जीवन में जो कुछ श्रेष्ठ और नैतिकतापूर्ण है, उसके पीछे विवेक विद्यमान होता है। नीति बोध से जब धर्म का उदय होता है तो मनुष्य अपनी अपूर्णता के प्रति जागरूक हो जाता है। व्यक्तित्व का आध्यात्मिक विकास दिव्य जीवन का शिलान्यास है जो नीतिबोध पर निर्भर रहता है। नीतिबोध की सार्थकता भी दिव्य जीवन की ओर अग्रसर होने में ही है।

सम्पूर्ण विश्व में भारत जैसे धर्माधारित नैतिक मूल्यों का विशाल भण्डार नहीं है और न ही आज की ज्वलन्त समस्याओं को दूर करने हेतु कोई दूसरा मार्ग है। केवल वैदिक सनातन नैतिक पद्धतियों से ही विश्व का कल्याण सम्भव है। यदि अपने नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रखना है तो हमें उपरोक्त शास्त्रां से प्रेरणा लेनी होगी। सबसे पहले स्वयं को सुधारते हुए सत्य, प्रेम, दया, अहिंसा, निरव्यसन, जितेन्द्रियता, अक्रोध, अलोभ, परोपकारिता आदि सद् गुणों को अपनाना होगा। नैतिकता के प्रारम्भिक संस्कार माता की गोद से ही बनते हैं। माता की शिक्षा, उसके आदर्श संस्कार और घर का वातावरण बच्चों के कोमल मन का विकास करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माता-पिता ओैर आचार्य बालक/बालिकाओं के आदि गुरु होते हैं, वे इन आदर्शों को संस्कार रूप में बच्चें में स्थापित करें क्योंकि मनुष्य जीवन की विकासधारा उसके शैशव-कालीन अनुभवों से निर्धारित मार्ग का ही अनुसरण करती है। धर्म, संस्कृति और इतिहास से बच्चों को उपदेशात्मक कथाएं सिखलायी जानी चाहिएं जिसे उनमें ईश्वर भक्ति और समर्पण की भावना आएं। इस प्रकार की शिक्षा से युवा पीढ़ी में मनसा-वाचा-कर्मणा सत्प्रवृत्तियां का विकास हो सकेगा। यह उनके चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और उनमें सत्य, दया, त्याग तप, विनय, न्याय प्रियता और राष्ट्र प्रेम आदि के गुण विकसित होंगे। प्राचीन परम्परागत नैतिक मूल्यों को पुनस्र्थापित करके ही हम विश्व में एक आदर्श और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकते हैं।

कृष्ण कान्त वैदिक शास्त्री

4 thoughts on “धर्म और नैतिकता

  • वेदों का अनुवाद भारत की हर भाषा में सरल से सरल शब्दों में होना चाहिए ताकि हर भारती इन को समझ सके और लाभ उठा सके.

    • Man Mohan Kumar Arya

      बहुत अच्छा सुझाव एवं प्रस्ताव है। आज भी वेदो के सरल , सुबोध, सर्वग्राह्य एवं प्रामाणिक भाष्य वा भावानुवाद का अभाव व कमी है जिस पर आर्य जगत के विद्वानो व नेताओं का ध्यान नहीं है। धर्म और नैतिकता लेख के लेखक महानुभाव को इस सुझाव वा प्रस्ताव को अपना मिशन बनाकर उसे पूरा करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। क्या वह इस पर विचार करेंगे ? क्या वह लेख की प्रतिक्रियानों को देखकर अपना उत्तर, दृष्टिकोल वा रिस्पांस प्रतिक्रियादाताओं को सूचित करेंगे?

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. आपने धर्म की सही व्याख्या की है. नैतिकता धर्म का मूल है. उसके बिना कोई धर्म नहीं हो सकता. नैतिकता के बिना कोई तथाकथित धर्म केवल पापियों का गिरोह मात्र होता है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    पूरा लेख पढ़ा। लेख ज्ञान वर्धक है। धन्यवाद एवं बधाई। कृपया सूचित करें कि क्या आरण्यक ग्रन्थ हिंदी अनुवाद वा भाष्य के साथ वर्तमान में कहीं उपलब्ध होते हैं। आरण्यक ग्रन्थ कितने हैं? कृपया सभी आरण्यक ग्रंथों के नाम सूचित करने का कष्ट करें।

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