आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 36)
बस ने हमें वहाँ उतारा जहाँ ‘डाटा शो’ नामक प्रदर्शनी लगी थी। उस दिन प्रदर्शनी का उद्घाटन था, जो 10 बजे होना था और हम जरा जल्दी पहुँच गये थे। तब तक हम एक खुले रेस्तराँ में बैठे और हमसे कहा गया कि वे पास की मशीनों से अपनी पसन्द का पेय ले लें। मशीनों के लिए सिक्के वे खुद दे रहे थे। मैंने पानी माँगा, तो उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कोई चिड़ियाघर का जानवर हो। परन्तु श्री हिरानो की महानता थी कि वे न जाने कहाँ से एक गिलास पानी ले आये, जिसे पीकर मैंने अपनी प्यास बुझायी। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि जापान में और सब चीजें मिलना आसान है, परन्तु पीने का पानी मिलना ही सबसे ज्यादा मुश्किल है। वास्तव में वे पानी को पीने लायक चीज मानते ही नहीं, उसके लिए कोकाकोला है, तरह-तरह की काॅफी हैं और जाने कितने तरह की शराब है, जो सब मशीनें बेचती हैं। इसलिए यहाँ पानी माँगना किसी गुनाह से कम नहीं। वैसे यहाँ की चकाचौंध को देखकर बड़े-बड़े धुरन्धर पानी माँग जाते हैं, मेरे जैसे साधारण देहाती की क्या बिसात? इसलिए मैंने आगे यह नियम बनाया कि कमरे में से निकलने से पहले ही दो गिलास पानी पीकर चला करूँगा। बीच में पानी मिल गया तो ठीक, नहीं तो लेमन सोडा या कोकाकोला ही सही। कुछ रेस्तराँ ऐसे हैं जो पानी दे देते हैं, यदि उनकी समझ में आ जाये कि आपको पानी चाहिए। Water (वाटर) शब्द यहाँ बहुत कम लोग समझ पाते हैं। जापानी में पानी से Miejo कहते हैं जिसका उच्चारण मिज्जो या मिउजो जैसा होता है।
ठीक दस बजे प्रदर्शनी का उद्घाटन हुआ। फीता काटा गया और सैकड़ों हजारों गुब्बारे उड़ाये गये। मजे की बात यह है कि सब गुब्बारे उड़ने से पहले इस तरह बांधे गये थे कि उनकी शक्ल भी एक बड़े गुब्बारे जैसी थी। वैसे उद्घाटन में उतना भी समय नहीं लगा, जितनी देर तक तालियां बजी थीं।
प्रदर्शनी 5 बड़े-बड़े हाॅलों में लगी थी। हम घुसे तो एक साथ थे, परन्तु भीतर जाकर भीड़ की वजह से अलग-अलग हो गये। हमसे कहा गया था कि ठीक 11.50 पर बाहर आ जाना। मैंने सभी हाॅल घूम-घूमकर देखे, क्योंकि पूरे 2 घंटे का समय मेरे पास था। फिर भी वहाँ इतनी कम्पनियां आयीं थी कि सबको ध्यान से देखने का समय बिल्कुल नहीं था।
भीतर का दृश्य ज्यादातर कम्प्यूटर सोसाइटी आॅफ इण्डिया की वार्षिक प्रदर्शनियों जैसा ही था। वैसे अन्तर भी थे। सबसे बड़ा अन्तर तो यह था कि यहाँ 99 प्रतिशत जापानी का प्रयोग किया जाता है। हालांकि मूल कम्प्यूटर हार्डवेयर तथा साॅफ्टवेयर अंग्रेजी के ही हैं। परन्तु डाटा प्रोसेसिंग पूरी तरह जापानी में होता है तथा प्रोग्रामिंग भाषाओं में भी जापानी का प्रयोग खुलकर किया जाता है। काश हमारे यहाँ भी हिन्दी का प्रयोग इतना हो पाता। मुझे वहाँ अंग्रेजी में छपे पैम्फलेट वगैरह प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती थी। दो-चार कम्पनियों के पास ही अंग्रेजी के पैम्फलेट थे, जो माँगने पर मिल जाते थे। अनेक जगह हमें बढ़िया प्लास्टिक के बैग उपहार में दिये गये। दो जगह पेन भेंट में मिले तथा एक ने मेरे विजिटिंग कार्ड पर प्लास्टिक का कवर चढ़ाया। एक जगह रंगीन चित्रों की फोटो कापी हो रही थी। मुझे अफसोस हुआ कि उस समय मेरे पास कोई फोटो नहीं था, नहीं तो मैं उसकी कापी करा लेता।
एक दूसरा फर्क मैंने यह नोट किया कि प्रत्येक कम्पनी के पंडाल पर दो-तीन अति सुन्दर लिपी-पुती जापानी लड़कियाँ माइक पर कमेन्टरी दे रही थीं (जापानी भाषा में)। कोई सुन रहा हो या न सुन रहा हो, उन्हें अपनी बात कहे जाना था। ऐसा प्रायः हमारे यहाँ नहीं होता। मैं कई वर्षों से कम्प्यूटर सोसाइटी आॅफ इण्डिया के सम्मेलनों में नहीं गया हूँ, इसलिए अगर वहाँ होता हो, तो पता नहीं।
जापान ने इलेक्ट्रानिक और कम्प्यूटर के क्षेत्र में जो भयंकर प्रगति की है उसकी एक झलक हमें यहाँ मिल गयी। हर तरह की नयी तकनीक यहाँ प्रदर्शित की गई थी, केवल उनको छोड़कर जिनमें शोध चल रहा है।
जब हम प्रदर्शनी से बाहर आये तो सबके पास ढेर सारे पैम्फलेट (जो ज्यादातर ने जबर्दस्ती पकड़ा दिये थे) तथा अनेक तरह के थैले थे। काफी वजन हो गया था, इसलिए एक जगह जाकर मैंने यह किया कि थैलों को तो मोड़कर एक थैले में रखा और जो पैम्फलेट थे उनमें से केवल अंग्रेजी के काम के पैम्फलेट अलग करके बाकी को एक कूड़े के डिब्बे को समर्पित कर दिया। फालतू वजन कम हो जाने से मुझे बड़ी राहत मिली।
लौटते समय हमें बस में एक-एक पैकेट दिया गया, जिसमें डबल रोटी और मक्खन था। एक डबल रोटी के बीच में मक्खन के बजाय कुछ और था, जिसका स्वाद मुझे अजीब सा लगा। मैंने पूछा यह क्या है तो पता चला कि वह मछली है। मैंने तुरन्त वैसी सारी डबल रोटियां अलग की तथा केवल ब्रेड-मक्खन वाली रोटियाँ खायीं। मैंने यह भी कसम खायी कि आगे से प्रत्येक चीज खाने से पहले बहुत सावधान रहूंगा।
वहाँ से हम एक पिकनिक स्पाट पर आये, शायद इम्पीरियल पैलेस। वहाँ एक नदी बहती रहती है तथा काफी हरियाली भरा मैदान है। वहाँ लोग आते हैं, फोटो खिंचवाते हैं तथा टहलते हुए चले जाते हैं। हमारी तरह घास पर चादर बिछाकर बैठकर खाना-पीना तथा सोना वहाँ नहीं चलता। वैसे वहाँ घास के मैदान भी हैं, पर उन पर जाता कोई नहीं। बाहर कुर्सियाँ बनी हुई हैं, जिन पर लोग बैठ जाते हैं। वैसे तो जगह बड़ी अच्छी है, पर पिकनिक का पूरा मजा नहीं आया। नदी भी कुछ इस तरह बह रही थी जैसे हमारे घर की नालियां बहती हैं। वैसे भी इनका महत्व शहर के नाले से अधिक नहीं। पानी भी बहुत गन्दा है, जिसे कोई छूता भी नहीं, नहाना-धोना तो दूर की बात है।
वहाँ एक योद्धा घुड़सवार की मूर्ति बनी हुई है। वहाँ हमने फोटो खिंचवाये। सभी आगन्तुकों में अकेला मैं ही था, जिसके पास कैमरा नहीं था, क्योंकि मैं कैमरा यहीं से खरीदने वाला था, जिसके लिए अभी तक समय नहीं मिला था। इसलिए श्री हिरानो ने ही अपने कैमरे से मेरी कई तस्वीरें खींची। मेरी जिद पर मेरी दो-तीन तस्वीरें उन्होंने अपने साथ भी खिंचवा लीं। उन्होंने बड़े प्यार से मुझे चिपकाकर तस्वीरें खिंचवायीं।
वहाँ से चलकर हम एन.टी.टी. कम्यूनिकेशन सेन्टर पर आये। यह जापान के सरकारी टेलीफोन और टेलीग्राफ निगम का हैड आफिस है। जापान ने टेली कम्यूनिकेशन के क्षेत्र में जो भी प्रगति की है उसका कर्ता-धर्ता यही है। यहाँ हमें वीडियो फिल्मों, सजीव उदाहरणों तथा नमूनों द्वारा यह बताया गया कि जापान ने अब तक क्या-क्या किया है और आगे क्या करने वाला है। चित्र वाले टेलीफोन, वीडियो के माध्यम से सम्मेलन करने का सिस्टम, चलते हुए वीडियो पर किसी भी चित्र को छपवाना तथा सामने खड़े व्यक्ति की आवाज तथा चित्र को रिकार्ड करके कहीं भी दिखा देना इसके कुछ करतब हैं। टेलीफोन, वीडियो, टी.वी. टेलेक्स, कम्प्यूटर आदि अनेक प्रकार के उपकरणों को एक साथ जोड़कर एक संचार सिस्टम बनाना इसकी नयी करतूत है। इन्हें बताना ही विस्मयजनक लगता है, देखना तो मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। खास तौर से वीडियो के माध्यम से दूर-दूर बैठकर कांफ्रेंस करना। इसमें एक ही बड़े पर्दे को चार-छः हिस्सों में बाँट कर सबका चित्र एक-एक हिस्से में प्रदर्शित किया जाता है और लोग एक-दूसरे की बात सुन भी सकते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे आमने-सामने बैठे हों। हमें इसमें बड़ा मजा आया।
इसी तरह एक ऐसी फैक्स मशीन दिखायी गयी जिसकी स्पीड काफी ज्यादा है और जिसके द्वारा भेजा गया चित्र या पत्र बिल्कुल असली जैसा लगता है। अभी बहुरंगी फैक्स आना बाकी है।
एन.टी.टी. की उपलब्धियों के बारे में हमें बताया एक लड़की ने, जिसका नाम था ‘मासुमी’, सुविधा के लिए हम उसे ‘मौसमी’ कह सकते हैं। वह काफी सुन्दर थी। भरे हुए गाल, जिन पर पाउडर की दो पर्तें तथा और होठों पर लिपस्टिक की चार। हर समय मुस्कराना और बात-बेबात हँसना। हँसना भी इस तरह कि मोती जैसे दाँतों के अलावा कुछ और दिखायी न पड़ जाये। लेकिन यह मत समझिये कि मौसमी केवल जापानी गुड़ियाओं में से एक थी। वास्तव में वह काफी योग्य थी। उसने हर बात इतनी अच्छी तरह दिखायी और समझायी कि हमें कोई प्रश्न पूछने की भी जरूरत नहीं पड़ी। उसने हममें से एक का फोटो भी वीडियो से छपवाकर हाथों-हाथ पकड़ा दिया।
चलते समय मौसमी ने बड़ी अदा से कमर तक झुककर हमें नमस्कार किया। जापान में झुककर बिना कुछ बोले नमस्कार किया जाता है। हर बात पर बार-बार झुकना यहाँ का रिवाज है। कुछ कम झुकते हैं, तो कुछ एकदम दोहरे हो जाते हैं। गुड माॅर्निंग कहना यहाँ नहीं चलता।
(जारी…)
विजय भाई, आज की किश्त भी बहुत अच्छी लगी और जो जो आप ने इस में बताया वोह तो अब नॉर्मल सा हो गिया है किओंकि आप का सफ़र तो बहुत अरसा पहले का है. लेकिन जो आप ने लिखा वोह ही इतहास का एक अधिआये है . बहुत मज़ा आया पड़ कर .
सही कहा, भाई साहब ! अब वह सब सामान्य बात हो गयी है. लेकिन उस समय मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था. आज हम खुद विडियो कोंफ्रेसिंग करते हैं, जबकि पहले वह चमत्कार ही लगता था. वैसे भी यह किसी चमत्कार से कम नहीं है.
आपको बहुत बहुत धन्यवाद.
आपकी जापान यात्रा के आज की क़िस्त में प्रस्तुत संस्मरण रोचक एवं मधुर है। आपकी लेखनी ने इन्हे सजीव स्वरुप प्रधान किया है जो पढ़ते ही बनता है। हार्दिक धन्यवाद।
आभार, मान्यवर ! आप सबको पसंद आ रहा है इसलिए मेरी भी हिम्मत इसे प्रस्तुत करने की हुई है. मेरा परिश्रम सफल हो गया.