बाल साहित्य

चंपक बच्चों की पाक्षिक पत्रिका

चंपक बच्चों की पाक्षिक पत्रिका लगभग 47 सालों से अनवरत् प्रकाशित हो रही है।

पहले यह मासिक प्रकाशित होती थी। अब यह पाक्षिक हो गई है। पहले इसका आकार छोटा था, अब इसका आकार बड़ा है। संपूर्ण पत्रिका बहुरंगीय है। आवरण हमेशा की तरह बेहद लुभावना होता है। अब यह 25 रुपए की हो गई है। 58 पृष्ठों पर रचना सामग्री में विविधता है।

परेशनाथ जी के संपादक बनने के बाद चंपक ने अपना परंपरागत स्वरूप बदला है। मेरे पास वह अंक सुरक्षित है जिसमें चंपक को नया आकार दिया गया था,और मैंने पहली बार चंपक में संपादकीय देखा था, लिखा था कि अब चंपक जादू-टोने,अंधविश्वास,तंत्र-मंत्र आदि से मुक्त रहेगी। वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आज के बच्चों की दुनिया से जुड़ी सामग्री प्रमुखता से प्रकाशित होगी। यह पढ़कर मैं बहुत खुश हुआ था। हालांकि मेरी कई कहानियां चंपक में प्रमुखता से और भव्यता के साथ प्रकाशित होती रही हैं।

लेकिन तमाम बातें हैं,जिनकी वजह से कई मामलों में चंपक से मेरी असहमतियां हैं।

बावजूद इसके कि आज चंपक की प्रसार संख्या हजारों में हैं। 65 लाख से अधिक इसके पाठक हैं। अब इसका हर अंक एक साथ 8 भाषाओं में प्रकाशित होता है। यानि किसी रचनाकार की एक ही रचना एक साथ 8 भाषाओं में उसके नाम के साथ छपती है।

बताता चलूं कि चंपक ने समय के साथ-साथ अपने आप को खूब बदला है। अब हर दूसरे तीसरे अंक के साथ वह बच्चों की रुचियों के हिसाब से सी0डी0 भी देती है। अंग्रेजी संस्करण 30 रुपए का होता है और अमूमन हर अंक के साथ किसी न किसी रूप में सीडी होती है।

पूरा एक पेज बच्चों के मनोरंजन के लिए ‘देखो हंस न देना’ है। कोई भी अब अपना चुटकुला एसएमएस के ज़रिए या मेल से चंपक को भेज सकता है। अब चंपक में चित्रकथाएं खूब छपती हैं। बच्चों के लिए गतिविधियां बढ़ गई हैं। इन गतिविधियों में रचनात्मकता भी है और बौद्धिकता भी है। इसके साथ-साथ हर बार हाथ के कौशल पर आधारित कुछ खुद करके सीखना भाव वाली एक्टीविटी है। मजेदार बात यह है कि पत्रिका में वास्तविक चित्र और स्कैच चित्र भी हैं। कंप्यूटराइज़्ड चित्र भी हैं। एक जानकारी जैव विविधता से भरी होती है।

सूझ-बूझ बढ़ाने और माथापच्ची करने के चंपक में अब नई-नई गतिविधियां खूब प्रकाशित हो रही हैं। अब यह पत्रिका के साथ-साथ गतिविधि वर्कबुक का आकार-सा लेने लगी है। बच्चों के चित्र और उनकी रचनाएं उनके नाम,कक्षा और पता के साथ भी छपती हैं। यह संख्या अभी कम है। मजेदार बात यह है कि समूची पत्रिका को समग्रता के साथ देखें तो इसमें चित्र शब्दों से अधिक हैं। पूरा पेज चित्र के सहारे ही साठ फीसदी मंतव्य का आकलन करा देता है। कुल जमा अब चित्रकार एक-एक पेज पर ध्यान दे रहे हैं। चित्रकथा चीकू के साथ दास आज भी चंपक में मौजूद हैं। उनका चीकू खरगोश आज भी अपनी बुद्धि और चतुराई से दूसरों पर हावी रहता है।

एक कहानी पढ़ने की गतिविधि है। 8 से 10 लाईन की एक कहानी होती है। वह शब्दों के माध्यम से आगे बढ़ती है। लेकिन शब्दों के साथ-साथ पूरा वाक्य चित्रों,अंकों,सिंबलों के माध्यम से आगे बढ़ती है।
पत्रिका ने मज़ेदार विज्ञान नियमित स्तंभ निकाला है। इसके तहत मजेदार सचित्र विज्ञान विषयक तर्कसंगत गतिविधि प्रकाशित हो रही है। देखें,सोचें और करें। इस विचार को यह आगे बढ़ाता है। आम जन के मध्य खासकर बच्चों में विज्ञान और तकनीकी के यह प्रयोग कुछ हट कर हैं।

पत्रिका में साहस,रोमांच,जिज्ञास जगाते स्तंभ भी हैं। यह सब बड़ों को बचकाना लग सकते हैं। लेकिन यह स्तंभ अर्ली रीडर्स और बुनियादी कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों के लिए बेहद कारगर हैं। चंपक ने चित्रांकन को विशेष तवज्जो दी है। जो सामग्री आधा पेज में छपती रही है उसे वह पूरा पेज दे रही है। अधिकतर सामग्री बच्चों को ध्यान में रखते हुए है। खेल,मस्ती और जीव-जंतुओं के आस-पास केंद्रित सामग्री के पीछे बच्चों का मनोविज्ञान ही है।

बार-बार चंपक के कुछ ताज़ा अंक उलटे-पलटें और पढ़ें तो हर पाठक आसानी से यह जान लेता है कि जीवन को बच्चे भी अपने अनुभवों से जीना चाहते हैं। वह जीवन की समझदारी को भी अपने नज़रिए से देख-परखकर धीरे-धीरे पुख्ता करते हैं। हल सुझाना, पहलियों से जूझना,माथापच्ची,खेल-खेल में गणित,चित्र आधारित गतिविधि से जूझना चंपक में है। यह सब इतना आसान और सरल है कि यह वाकई अद्भुत हो गई है। इनत माम गतिविधियों के उत्तर भी अंक में दिए होते हैं।

चंपक Creative Child Contest के ज़रिए 600 से अधिक स्कूलों के एक लाख से अधिक बच्चों में रचनात्मकता जगाने का अभियान छेड़े हुए है। बच्चे अपनी कूची से दिए गए विषयों पर अपनी अभिव्यक्ति दे रहे हैं। हर अंक में सीधे भाग लेने के लिए तरीके भी सुझाए रहते हैं। एक और स्थाई स्तंभ कई अंकों से अनवरत चल रहा है। पालतू पशु-पक्षियों से संबंधित सवालों के जवाब मेनका गांधी मेनका आंटी के तौर पर देती है।

चंपक ने अपनी पारंपरिक छवि तोड़ने का प्रयास किया है। कुछ हद तक वह इसमें सफल भी हुई है। ज़ाहिर सी बात है कि पत्रिका को बच्चों के मन की पत्रिका बनाने के चलते अब इसमें कहानियों की संख्या सिमट गई है। कविताएं तो चंपक पहले से ही बहुत कम छापती रही है। लेकिन अब बच्चों की सहभागिता और उन्हीं की रचनाओं को स्थान अधिक मिलने लगा है।

यहां भी एक बात मैं कह सकता हूं कि हर पत्रिका की अपनी रीति-नीति होती है। उसी के तहत वह कुछ विशेष उद्देश्यों को लेते हुए रचना-सामग्री जुटाती है। चंपक भी उससे अछूती नहीं है शायद। यही कारण है कि उसकी कहानी में जीव-जंतुओं में कुछ विशिष्ट नाम के पात्र आज भी चले आ रहे हैं। मैं खुद भी बहुत बाद में समझ पाया हूं कि आखिर क्यों कर जीव-जंतुओं को पात्र बनाकर कहानी गढ़ी जाए? क्या वाकई हर कहानी के पात्रों को जीव-जंतुओं में ढालकर पाठकों को दी जाए? चंपक में आज भी अधिकतर कहानियां जीव-जंतुओं को केंद्र में रखकर छप रही हैं। ऐसा भी नहीं है कि चंपक में बच्चों के वास्तविक जीवन से जुड़ी कहानियां नहीं छपती। छपने लगी हैं,लेकिन उनकी संख्या कम है।

एक बात जो मेरी समझ में मुझे भी ठीक लगी कि जीव-जंतुओं का मानवीकरण कर (कुछ हद तक) कहानी गढ़ ली जाए। लेकिन वह पचा पाने योग्य तो हो। हम हर कहानी के पात्र में इतनी अति काल्पनिकता न भर दें कि तीन साल के बच्चे भी कहानी सुन-पढ़कर कह दें कि ऐसा कहां होता है।

मैंने पहले भी कहीं उल्लेख किया था कि एक दिन में चार वर्ष के अनुभव को पेड़ पर आधारित एक काल्पनिक कहानी सुना रहा था। मैं कहानी आगे बढ़ाते हुए कह रहा था कि तभी पेड़ ने उस नटखट बच्चे को थप्पड़ मार दिया।

अनुभव तुरंत बोल पड़ा। बोल पड़ा ही नहीं उसने पूछा-‘‘पापा। पेड़ थप्पड़ कैसे मार सकता है? उसके हाथ कहां होते हैं?’’

मैं चुप हो गया। मैंने इस ओर क्यों ध्यान नहीं दिया कि बच्चों को भी यथार्थ पता होता है। वह भी जान चुका है कि चन्द्रमा चंदामामा कहां हो सकता है। मां का भाई भी तो मां की तरह हाथ-पैर वाला होगा। वह भी धरती पर रहता होगा, आसमान में नहीं।

कुल मिलाकर अब हमें आज के बच्चों को वास्तविक जीवन की कहानियों से भी अवगत कराना होगा। मैं यह नहीं कहता कि फंतासी और काल्पनिक कहानियों में बच्चे आनंद नहीं लेते। बच्चे आज भी अलादीन का चिराग सरीखी कहानियां पसंद करते हैं। लेकिन मनोरंजन के लिए हम कुछ ऐसा गढ़ें कि बच्चे उसके आनंद में वास्तविकता न खोजें। जब वे वास्तविकता खोजते हैं तो वह सवाल करते हैं। सवाल के जवाब में हम बढ़े उन्हें ऐसे जवाब न दें जो सही के नज़दीक भी न हो। इससे बच्चों का भला नहीं होने वाला है।

चंपक को भी इस दृष्टिकोण से सोचना चाहिए। रेल,यातायात संबंधी यदि कुछ बातें कहानी में आनी हैं तो आए लेकिन यह क्या कि चूहा रेल चला रहा है। खरगोश पायलट बन हवाई करतब दिखा रहा है। कुछ भी न हजम होने वाली कथावस्तु बच्चों के साथ धोखा ही है।

Manohar Chamoli ‘manu’

 

मनोहर चमोली 'मनु'

मनोहर चमोली ‘मनु’ पौड़ी गढ़वाल में रहते हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाआंे में कहानी, कविता, नाटक और व्यंग्य प्रकाशित। प्रमुख कृतियाँ -‘हास्य-व्यंग्य कथाएं’, ‘उत्तराखण्ड की लोक कथाएं’, ‘किलकारी’, ‘यमलोक का यात्री’, ‘ऐसे बदला खानपुर’, ‘बदल गया मालवा’, ‘बिगड़ी बात बनी’, ‘खुशी’, ‘अब बजाओ ताली,’ ‘बोडा की बातें’, ‘सवाल दस रुपए का’, ‘ऐसे बदली नाक की नथ’ और ‘पूछेरी’। बाल कहानियों का एक संग्रह ‘व्यवहारज्ञान’ मराठी में अनुदित। उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा में कक्षा 5 के बच्चे ‘हंसी-खुशी’ पाठ्य पुस्तक में इनकी कहानी ‘फूलों वाले बाबा’ पढ़ रहे हैं। विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड की शिक्षक संदर्शिकाओं और पाठ्य पुस्तकों ‘भाषा रश्मि’, ‘बुरांश’ और ‘हंसी-खुशी’ में लेखन और संपादन भी किया। कहानी सुनना और सुनाना इनका शौक है। घूमने के शौकीन। पैदाइश उत्तराखण्ड के जनपद टिहरी के गाँव पलाम की है। पहले पत्रकारिता की फिर वकालत। फिलहाल बच्चों को पढ़ाते हैं। बच्चों के साथ अधिक समय बिताते हैं। पिछले एक दशक से बच्चों के लिए लिखते हैं। भितांई, पोस्ट बाॅक्स-23,पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल। पिन-246001.उत्तराखण्ड. मोबाइल-09412158688.