गिर रही है आँख से शबनम तुम्हारे हिज़्र में
गिर रही है आँख से शबनम तुम्हारे हिज़्र में
एक ही बस एक ही मौसम तुम्हारे हिज़्र में
क़तरे-क़तरे में शरारों सी बिछी है चांदनी
बन गयी है हर ख़ुशी मातम तुम्हारे हिज़्र में
आईना-ओ-धूप के बिन अक्स न साया मेरा
किस क़दर तनहा हूँ मैं हमदम तुम्हारे हिज़्र में
खो गयी है अब नज़र की तिश्नगी जाने कहाँ
अश्क़ में डूबा है ये आलम तुम्हारे हिज़्र में
दे भी जाओ अब सनम आकर सुकूं दिल को मेरे
या बता जाओ करें क्या हम तुम्हारे हिज़्र में
तुम नहीं तो सांस भी भारी लगे है बोझ सी
यूँ ही निकलेगा लगे है दम तुम्हारे हिज़्र में
फ़िक्र-ए-दुनिया है न खुद की है ख़बर कोई मुझे
अब ख़ुशी है न ही कोई ग़म तुम्हारे हिज़्र में
फूल उम्मीदों के सारे आज कांटे बन गए
हर क़दम पतझर का है मौसम तुम्हारे हिज़्र में
एक-एक लम्हा लगे है अब क़यामत सा “नदीश”
ख़्वाब भी होने लगे हैं नम तुम्हारे हिज़्र में
©® लोकेश नदीश
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !