वो तो माँ ही थी…
दुःख सहकर भी जो हरषाई
वो तो माँ ही थी
जन्म दिया बेटी को और मुस्काई
वो तो माँ ही थी
कभी ना किया गिला ना शिकवा
हुआ ना जिसका कोई मितवा
फिर भी जग को दिया हैं जितवा
मेरे दुःख में रोये जिसका मनवा
वो तो माँ ही थी
खुद ना जानी पढ़ना -लिखना
मुझे सिखाये सारे पाठ
सुई तागे की दुरी में
उम्र हो गई जिसकी साठ
उसकी ख़ातिर ही हैं
मेरे जीवन के ये ठाठ
मेरे आने की जोहती जो बाट
वो तो माँ ही थी
अपने चाम की जूती पाऊँ
फिर भी क़र्ज़ चुका न पाऊं
कोई तो वो राह बता दे
जिस पर चलकर तुझको पाऊं
तेरे अंचल की छाया में
मुझ पर आई कोई ना आंच
वो तो माँ ही थी
वो तो माँ ही थी
— चन्द्रकान्ता सिवाल ‘चंद्रेश’