ग़ज़ल
न जाने कैसा नशा दिल को उसके प्यार में है,
कि, जब भी देखो इसे, उसकी ही ख़ुमार में है।
दियारे – ग़ैर की खुशवारियों में ऐसे रमे,
ये भूल बैठे, कोई घर पे इंतज़ार में है।
ये कैसा रूप हवाएँ सजा के आयीं आज,
न बू – ए – ग़ुल, न कोई रंग ही बहार में है।
मिलाओ हाथ, चलो दोस्तों, मना लाएँ,
उस आदमी को, जो नफरत की रहग़ुज़ार में है।
वो जिस अज़ाब से, ऐ दोस्त, डर रहे हो तुम,
सुहानी सुबह का सूरज उस अंधकार में है।
पता लगाओ, क्या दुनिया में अहले-उल्फत की,
जिगर-ओ-दिल के सिवा,’होश’ भी शुमार में है?
— मनोज पाण्डेय ‘होश’
(दियारे-ग़ैर – परदेश ; खुशवारियाँ – माया ; बू-ए-ग़ुल – फूलों की सुगंध ;
रहगुज़ार – रास्ता ; अज़ाब – कष्ट, तिमिर; अहले-उल्फत – प्यार करने वाले ; शुमार – गिनती)
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !
मिलाओ हाथ, चलो दोस्तों, मना लाएँ,
उस आदमी को, जो नफरत की रहग़ुज़ार में है। वाह क्या ग़ज़ल है , भाई मज़ा आ गया .