गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

न जाने कैसा नशा दिल को उसके प्यार में है,
कि, जब भी देखो इसे, उसकी ही ख़ुमार में है।

दियारे – ग़ैर   की  खुशवारियों  में  ऐसे  रमे,
ये  भूल   बैठे,   कोई   घर  पे  इंतज़ार  में है।

ये  कैसा  रूप  हवाएँ   सजा के आयीं आज,
न बू – ए – ग़ुल,  न  कोई  रंग ही  बहार में है।

मिलाओ   हाथ,   चलो   दोस्तों,   मना  लाएँ,
उस आदमी को, जो नफरत की रहग़ुज़ार में है।

वो  जिस अज़ाब से, ऐ दोस्त, डर रहे हो तुम,
सुहानी  सुबह  का  सूरज उस अंधकार में है।

पता लगाओ, क्या दुनिया में अहले-उल्फत की,
जिगर-ओ-दिल के सिवा,’होश’ भी शुमार में है?

मनोज पाण्डेय ‘होश’

(दियारे-ग़ैर  –  परदेश ; खुशवारियाँ –  माया ; बू-ए-ग़ुल  –  फूलों की सुगंध ;
रहगुज़ार  –  रास्ता  ;  अज़ाब  – कष्ट, तिमिर; अहले-उल्फत – प्यार करने वाले ; शुमार –  गिनती)

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मिलाओ हाथ, चलो दोस्तों, मना लाएँ,
    उस आदमी को, जो नफरत की रहग़ुज़ार में है। वाह क्या ग़ज़ल है , भाई मज़ा आ गया .

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