कविता

डस्टबिन

मेरे घर के कोने में पड़ा

नीले रंग का प्लास्टिक का

सुन्दर सा बाल्टीनुमा डस्टबिन

है उसमे लीवर-सा सिस्टम

ताकि उसको पैर से दबाते ही

लपलपाते घड़ियाल के मुंह के तरह

खुल जाता है ढक्कन !!

सुविधाजनक डस्टबिन

समेट लेता है हर तरह का कूड़ा

जूठन/धूल/कागज़/और भी

सब कुछ /  बहुत कुछ

बाहर से दिखता है सलीकेदार

नहीं फैलने देता दुर्गन्ध

नहीं बढ़ने देता रोग के कीटाणु

है अहम्, मेरे घर का डस्टबिन

आखिर हैं हम सफाई पसंद लोग !!

अगर मैं खुद को करूँ कम्पेयर

तो पाता हूँ, मैं भी हूँ

एक शोफिसटिकेटड डस्टबिन

सहेजे रहता हूँ गंदगी अन्दर

तन की गंदगी

मन की गंदगी, हर तरह से

गुस्सा/इर्ष्या/जलन/दुश्मनी

हर तरह का दुर्गुण/अवगुण

है, अहंकार का ढक्कन भी

पर, हाँ, बाहर से टिप-टॉप

एक प्यारा सा मस्तमौला इंसान

अन्दर पड़ी सारी दुर्भावनाएं

फ़रमनटेट करती है

और अधिक कंडेंसड  हो जाती है

और फिर, गलती से या अचानक

दिखा ही देती है मेरा अन्तःरूप !!

साफ़ हो जाता है डस्टबिन

एक फिक्स आवर्ती समय पर

पर मेरे अन्दर के

दुर्गुण के लेयर्स

सहेजे हुए परत दर परत

हो रहा है संग्रहित !!

काश ! स्वभावजन्य कमजोरियों से

हुई दुर्गुणों के अपच को

शब्दों के पश्चाताप से रोगमुक्त कर

सादगी भरी स्वीकारोक्ति की डूबकी लगा

साफ़ स्वच्छ छवि के साथ

एक बार फिर से हो पाता प्रतिष्ठित

एक काश, ही तो कहना होगा

प्रियोडीकली !!

और मेरे सर के ऊपर का आसमान

पूर्ववत रहेगा सुन्दर

सम्मोहक नीला !!

मुकेश कुमार सिन्हा

 

One thought on “डस्टबिन

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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