आत्मकथा

स्मृति के पंख – 11

मुझे तो कोई तकलीफ न थी, लेकिन शाम को जब भ्राताजी को आते देखता सर पर आटा उठाये, तो बड़ी तकलीफ होती। शाम को 5 बजे के बाद हम इकट्ठे मिल पाते। मैं वहाँ कुछ भी मदद भ्राताजी की नहीं कर सकता था। वह बहुत थके होते और हाथे में छाले भी पड़ गये थे। तकरीबन एक हफ्ता गुजरने पर एक सफेदपोश आदमी, जिसकी उम्र लगभग 50 साल की होगी, मेरे पास आकर खड़ा हो गया और कहने लगा कि बेटा, मैं भी कैदी हूँ, लेकिन साथ ही अस्पताल है, उसी में रहता हूँ। अमीर आदमी था, मैंने उससे पूछने की हिम्मत तो नहीं की कि आप कैसे कैद हुए, लेकिन साथियों से पता चला कि उसे 10 साल की सजा है और बहुत नेक व अमीर इंसान है। अस्पताल में उसे एक नौकर भी मिला हुआ था। दूसरे दिन सुबह उसका (भागसिंह का) नौकर आया और एक दलिया का कप लिए हुए। मेरा नाम पूछकर उसने वो मुझे दे दिया और कहने लगा चाचा भागसिंह ने भेजा है। वो रोजाना इसी तरह दलिया मुझे भेज देता। एक दिन मैंने अस्पताल जाकर उससे कहा कि रोजाना क्यों दलिया भेज देते हो, ऐसे मुझे अच्छा नहीं लगता। वो बोले बेटा हम तो ससुराल आये हैं, अच्छा खाना और जितना खाएं मिलता रहेगा। तुम्हारे लिए अभी बहुत जरूरी है। तेरी तो उम्र ही हंसने खेलने की है और भी अगर किसी किस्म की तकलीफ हो, तो मुझे कह दिया करें।

इस तरह मेरे दिन तो बहुत आराम से गुजर रहे थे। लेकिन भ्राताजी उसी तरह सख्त मशक्कत में ही रहे। कुछ दिन बाद पिताजी मुलाकात के लिए आए। उनके साथ छोटा भाई रिखीराम भी था। पिताजी उदास भी थे और चेहरे से मायूस भी लगते थे। जाली में से सिर्फ बातें हो सकती थीं। हाथ नहीं मिलाया जा सकता था, न ही प्यार दिया जा सकता था। पिताजी से तो हम बातचीत कर रहे थे, रिखीराम देख रहा था हमें हैरान-हैरान। जाते समय मैंने पिताजी से कहा- मेरी जमानत की तो फिक्र मत करो, मुझे कोई तकलीफ नहीं है, मेरे साथी भी मेरी उम्र के लड़के हैं और सारा दिन हंसी खेल में गुजरता है। कुछ मुझे उनसे सीखने का मौका भी मिलता है। लेकिन भ्राताजी की जमानत जरूरी भी है और जल्दी भी। एक तो आपको सहारा मिलेगा, दूसरा भाभीजी की परेशानी कम हो जाएगी। तकरीबन 15 दिन बाद एक लड़के को, जिसे पहले फांसी की सजा हुई थी, फांसी की माफ होकर 14 साल हो गई। उसको भ्राताजी के साथ लगाया था। एक चक्की पर दो आदमी 2 मन आटा पीसते थे। उस लड़के ने कहा कि तुम्हारे हाथ में बड़े छाले हैं, तकलीफ होती होगी। वह अकेला ही सारी गंदम 2 बजे तक पीस लेता। और इस तरह भ्राताजी को भी कुछ आराम मिल गया।

तकरीबन 1 महीना पेशावर जेल में गुजारा होगा। कुछ कैदियों के नाम लिखकर एक बड़े कमरे में बंद करते गये। उनमें मेरा नाम भी था। मैंने साथियों से पूछा यह क्या है? उन्होंने कहा कि चालान, दूसरी जेल में जाना है। मैंने कहा – मेरे भाई को तो कुछ पता नहीं है और यह अगर अभी हमें ले जाने लगे, तो बगैर मिले भाई के मुझे बहुत महसूस होगा कि जाती दफा हम मिल भी नहीं पाए। साथियों ने कहा- फिक्र मत करो। अभी उनको बुलवा लेता हूँ। थोड़ी देर तक भ्राताजी आ गए। 2 बजे दूसरी जेल तक हमें रवाना होना था। कमरे के अन्दर मैं और बाहर भ्राताजी खूब रो रहे थे। यह अभी पता नहीं कि मुझे किधर ले जा रहे हैं और 2 बजे जेल से 21 कैदियों का जत्था रवाना हुआ। फ्रंटियर में तीन साला कैदी को बेड़ी लगती थी। बेड़ी तो हमें लगी हुई थी। हथकड़ियाँ पहनाकर पुलिस की एक गारद और एक इंस्पेक्टर हमें बाहर निकालकर ले आए। बस में बिठाकर पेशावर सदर से गाड़ी पर रवाना हुए। मैंने इंस्पेक्टर से पूछा कि कहाँ ले जाना है, तो उसने बताया कि लाहौर।

जेल में पैसा पास हो तो बहुत काम कर जाता है। साफ हिसाब था, जो बाजार में 1 रुपये की चीज है, वो जेल में 3-4 की मिल जाती थी। लेकिन मेरे पास तो रुपया बिल्कुल नहीं था। बूट के नीचे जो सोल लगा था, उसमें सिर्फ 5 रुपये थे। थोड़ी परेशानी हुई, फिर सोचा देखा जायेगा, इसमें परेशानी वाली कौन सी बात है। 21 आदमियों में सिर्फ मैं ही एक सियासी कैदी था, बाकी 20 इखलाकी कैदी थे। सब पुश्तो बोलते थे और अच्छे निडर लड़के थे। मुझे इतना इलम (पता) था कि प्रति कैदी 12 आने खर्चा के लिए मुकर्रर (तय) हैं। रास्ते में जो रोटी उन्होंने लाई तो वो 2 आने की भी न थी। मैंने इंस्पेक्टर से कहा कि भई कम से कम सफर के दो दिनों में तो आपको ख्याल रखना चाहिए। जेल में तो जो खाना मिलता है मिलता है, सफर में 12 आने की बजाए 8 आने का तो मिलना चाहिए। फिर उसने कुछ दाल सब्जी भी मंगाई और साथ में 1-1 कप चाय।

रास्ते में पुलिस की गारद बदल गई। फ्रंटियर पुलिस ने हमें पंजाब पुलिस के हवाले कर दिया। जब हम लाहौर पहुँचे तो एक ढाबा से चाय और नाश्ता किया। जब हमें पुलिस ने रवाना किया, तो एक लड़का मेरे नजदीक आया और कहने लगा कि स्टेशन से जेल ले जाने के लिए बस की मंजूरी है, अगर ये लोग तुम्हें पैदल ले जायें, तो इनकार कर देना। जेल काफी दूर है और बेड़ियों के साथ चलना बहुत मुश्किल है। 2-4 दफा तो मैंने पुलिस वालों को यह चेतावनी दी लेकिन जैसे उन्होंने अनसुनी कर दी। मैंने सब लड़कों से पुश्तो में बात कर ली। पंजाब पुलिस तो पुश्तो समझ नहीं पाई। मैंने कहा मैं पेशाब करने बैठता हूँ और फिर उठूँगा नहीं और सबने कहना है कि हमसे पैदल नहीं चला जाता। ऐसा करने पर इंस्पेक्टर ने कहीं से फोन किया और बस आ गई और इस तरह हम बोस्टन जेल लाहौर पहुँचे। दरवाजा में तलाशी हुई लेकिन हैरत की बात है कि पहले मरदान जेल में, फिर पेशावर जेल में और अब लाहौर जेल में भी मेरे बाजू पर चांदी का जो अनन्त था, वो तो किसी ने देखा भी नहीं, वो अनन्त मेरे बाजू पर जेल में भी रहा। तलाशी के बाद जेल के एक चौक में बेड़ियां उतार दी गईं। लाहौर जेल में 3 साला कैदी को बेड़ी नहीं लगती थी। एक अलग अहाते में ले गए मुझे और बाकी कैदी दूसरे अहाते में। एक दरख्त के नीचे कोट सिरहाने रखकर मैं लेट रहा।

थोड़े फासले पर चन्द आदमी खड़े थे। उन्होंने मुझे अपनी तरफ बुलाया। मुझसे पूछा- कहाँ से आए हो, अकेेले आए हो या साथी भी थे? मैंने सब हालात उन्हें बताए। वो लोग थे टीकाराम सुखन, क्रांति कुमार, सोहन लाल, कुछ के नाम मुझे याद नहीं। ये लोग भगतसिंह साजिश केस के बाद दूसरी साजिश में गिरफ्तार थे। अभी उन पर केस चल रहा था। उन लोगों ने बहुत प्यार दिया, क्योंकि कुछ दिन हरिकिशन भी उस जेल में थे। सुखनजी ने कहा 4-5 दिन बाद मुलाहिजा होगा, मैं तुम्हें सब बतला दूँगा। चलो अभी रोटी खाते हैं, उनकी रोटी बाहर से आती थी। काफी दिन बाद घर की रोटी खाने को मिली, साथ में फल फ्रूट भी था। खाने के बाद सुखनजी ने कहा कि अभी वार्डन आकर तुम्हें कमरा देगा। उस अहाता में हर एक कैदी अलग-अलग कमरे में था। मैं उसे कह दूँगा कि अपने साथ वाला कमरा तुम्हें दें। कुछ किताबें पढ़ने के लिए, बिस्तर, एक लैम्प रात को दे देंगे। फिक्र मत करो। किसी बात का पूछना हो तो मुझसे पूछ लिया करो। भगवान की ऐसी कृपा जैसे बच्चे के जन्म से पहले मां की छाती में दूध आ जाता है, वैसे ही मेरे यहाँ पहुँचने पर ईश्वर ने सब बंदोबस्त कर दिया और ईश्वर के चरणों में मेरा सिर झुक गया।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 11

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई यह किश्त भी अच्छी लगी और दुःख की बात यह है कि हमारे पुलिस वालों की सोच शाएद शुरू से ही ऐसी है जिस को मैं कमीनापन ही कहूँगा . कितना संघर्ष किया है हमारे पुरखों ने और अँगरेज़ की तो पॉलिसी ही कठोरता से राज करने की थी , जिस के बगैर वोह हिन्दुस्तान को संभाल ही नहीं सकते थे किओंकि उन के पैर सिर्फ भारत तक ही सीमत नहीं थे बलिक उन के राज में सूरज नहीं छिपता था . जैसे ही भारत उन के कब्ज़े से निकल गिया , धीरे धीरे उन की सभी बस्तिआन आज़ाद हो गईं .

  • Man Mohan Kumar Arya

    पूरी ही क़िस्त रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। अंतिम पैरा कुछ आध्यात्मिक पुट लिए हुवे है, इसलिए अच्छा लगा। धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    जेल का हाल रोचक लगा. आज भी भारत की जेलों में हालत कुछ सुधरी नहीं है. आज भी पुलिस वालें मजबूर कैदियों का शोषण करते हैं. केवल पैसे वाले कैदी या आतंकवादी मजे करते हैं.

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