ग़ज़ल : मेरी बरबादियों का जश्न मनाने वाले
मेरी बरबादियों का जश्न मनाने वाले
सुकूं न पायेगा तू मुझको सताने वाले
अश्क-ए-ग़म पी कर जी लूंगा मैं हमदम
दादखाही तेरी अच्छी नहीं जाने वाले
ख्वाब तेरे जो संजोये थे मैंने कभी
उन्हें तू खत्म न कर बर्क गिराने वाले
माजरा-ए-दर्द-ए-दिल किससे कहूं
फुरकत कैसे सहूँगा बता जाने वाले
मरीजे-इश्क पर कुछ तो रहम कर
काबिले-गौर कर”अरुण” को सताने वाले
— अरुण निषाद
मेरे ज़ख्मो को चोट लगती है हवा मत दो
अब मुझे मौत ही दे दो और सजा मत दो
तुम मुझे भूल ही जाओ तो अच्छा होगा
मेरे दिल को मेरे यार अब अज़ा मत दो
मैं अब मुतमइन हूँ छोटी सी अपनी दुनिया में
तुम मेरे पास न आओ और फ़ज़ा ना दो
गर सुकून तुमको मिले तर्क -तआल्लुक कर लो
पर शबे -ग़म में ‘अरुण ‘ मेरा अब मज़ा मत लो.
अरुण निषाद ,सुलतानपुर।
शोध छात्र
लखनऊ विश्वविद्यालय ,लखनऊ।
७७ ,बीरबल साहनी शोध छात्रावास ,
लखनऊ विश्वविद्यालय ,लखनऊ।
मो.9454067032
बेहतर ग़ज़ल ! आप में बहुत संभावनाएं मालूम पड़ती हैं.