क्षणिकाएं-1
(1) मन की पीड़ा
आओं
हम-तुम चले
तन की सारी पीडाएँ छोड़
मन की पीड़ा का
ज़बाब ढूढने
तन की पीड़ा
ये मन सह लेगा
लेकिन
मन की पीड़ा
असहनीय होती हैं
ये तन के बस की नहीं
(2) घर
झोपड़ी हो
या फिर महल
रहता हैं
इंसान ही
नादान ही
शैतान ही
(3) मैं अंजान
कागज-सी कोरी हैं
ये हथेलियाँ
और मैं
बिल्कुल निरक्षर
देखते हैं
क्या लिखता हैं
ये नासमझ जीवन
(4) मेरे सपने
मेरे सपनों के
पूरा होने से पहले
मेरा जीवन
समाप्त न हो जाये
चन्द अक्षर ही अभी
मैं लिख पाया हूँ
मेरे मरने के बाद
यही प्रयाप्त न हो जाये
(5) बरसात
गर्मी में बाबा ने कहा —
बरसात न होने के कारण फसल बर्वाद हो गई!
फिर तीन-चार महीने बाद बोले —
बरसात होने के कारण फसल बर्वाद हो गई!!
— अमन चाँदपुरी
सुन्दर !
अच्छी क्षणिकाएं !
sundar sabhi